________________
वर्मशास्त्र का इतिहास योगसूत्र का तृतीय पाद विभूति-पाद (वह पाद जो योगी की अलौकिक शक्तियों का विवेचन करता है) कहलाता है । 'विभूति' शब्द प्रश्नोपनिषद् (५४) में आया है और वहां कहा गया है कि जो व्यक्ति द्विमात्र ओम् का ध्यान करता है वह चन्द्रलोक में जाता है, जहां वह विभूति का आनन्द लेता है और पुन: इस पृथिवी पर चला आता है। यहाँ 'विभूति' शब्द का अर्थ सम्भवत: समृद्धिमय जीवन है। तृतीय पाद में सर्वप्रथम योग के आठ अंगों में अन्तिम तीन का विवेचन है। आठ अंगों में प्रथम पांच को बहिरंग (संप्रज्ञात समाधि के परोक्ष सहायक) कहा जाता है और अन्तिम तीन को अन्तरंग (किन्तु ये मी निर्वीज योग के सन में बहिरंग कहे जाते हैं। क्योंकि निर्बीज योग इन तीनों अर्थात् धारणा आदि के अभाव में भी स्थापित हो सकता है) कहा जाता है। ये तीनों हैं-धारणा, ध्यान एवं समाधि और जब इन तोनों का अभ्यास एक ही विषय या पदार्थ पर किया जाता है तो इन्हें संयम कहा जाता है जो योगशास्त्र का एक पारिभाषिक शब्द है। कई प्रकार के संयम के परिणाम ही विभूतियाँ हैं । तृतीय पाद में १६ से ५२ तक के अधिकांश सूत्रों में पतञ्जलि ने इन तीन शब्दों के स्थान पर 'संयम' शब्द का ही प्रयोग किया है।
धारणा, ध्यान एवं समाधि योग के अन्तरंग अंग हैं और वे एक-के पश्चात् एक आने वाली अवस्थाए हैं, पूर्ववर्ती के पश्चात् उत्तरवर्ती अंग आता है। किसी एक स्थल या बिन्दु या पदार्थ पर चित्त को बांधना धारणा है (देशबन्धश्चित्तस्य धारणा)। भाष्य में व्याख्या हुई है कि चित्त को शरीर के कुछ विशिष्ट अंगों पर लगाना चाहिए, यथा नाभिचक्र, हृदय-पुण्डरीक (कमल), सिर, ज्योति (आंख में), नासिका का अग्रभाग, जीम का अग्रभाग आदि तथा उसे (चित्त को) बाह्य वस्तुओं (यथा--देवों की विभिन्न आकृतियों अथवा प्रतीकों) पर लगाना चाहिए । इस अवस्था में चित्त को स्थिर रूप से वरण की हुई वस्तु पर योगाभ्यास करने वाले की इच्छा-शक्ति द्वारा निश्चित किये हुए काल तक लगाना चाहिए । इस अवस्था में तीन तत्त्व हैं, यथा-- कर्ता, विषय एवं धारणा की क्रिया । दूसरी अवस्था है ध्यान, जिस पर हम थोड़ी देर के पश्चात विवेचन उपस्थित करेंगे। मार्कण्डेयपुराण (३६।४४-४५=३६।४४-४५ कलकत्ता संस्करण) ने योगी के शरीर के विभिन्न अंगों पर की गयी इन धारणाओं का उल्लेख किया है जो पतञ्जलि द्वारा प्रयुक्त बहुवचनान्त धारणाओं (धारणासु च योग्यता मनसः, योगसूत्र २।५३) का मानो समर्थन किया है । आश्वमेधिकपर्व (१६३७) एवं शान्तिपर्व
६८. देशबन्धश्चित्तस्य धारणा । तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम् । योगसूत्र (३।१-२); इस पर भाष्य इस प्रकार है-नाभिचक्रे हृदयपुण्डरीके मूधिः ज्योतिषि नासिकाग्रे जिह्वान इत्येवमादिषु देशेषु बाह्ये वा विषये चित्तस्य वत्तिमात्रेण बन्ध इति धारणा । तस्मिन्देशे ध्येयालम्बनस्य प्रत्ययस्यकतानता सदृशः प्रवाहः प्रत्ययान्तरेणापरामष्टो ध्यानम । लिंगपु० (१।८।४२-४३) में योगसूत्र के शब्दों की प्रतिध्वनि है-'चित्तस्य धारणा प्रोक्ता स्थानबन्धः समासतः।..तत्रकचित्तता ध्यानं प्रत्ययान्तरवजितम् । उपनिषदों ने हृदय को कमल (पुण्डरीक) कहा है (देखिए छा० उप०८।१।१ वे० सू० १२३३१४-२१ पर शंकराचार्य का भाष्य-दहर उत्तरेभ्य... आदि) । 'ज्योतिषि' सम्भवतः आँख के पुरुष की ओर अथवा अपने हृदयस्थ भगवान की ओर संकेत करता है (छान्दोग्य० ८७४ या ६१५॥१- एषोऽक्षिणि पुरुषो दृश्यत एष आत्मेति होवाच) । वाचस्पति ने 'बाह्ये या विषय' की व्याख्या विष्णुपुराण (६७७७-८२) के कतिपय श्लोकों को उद्धृत कर के की है, जहाँ विष्णु के रूप के ध्यान करने का उल्लेख है; विष्णु के स्वरूप की यों चर्चा है-सदय मुख, कमल के समान आँखें, कानों में कुण्डल, छाती पर श्रीवत्स रत्नाभूषण, चार या आठ लम्बे-लम्बे हाथ, पीत वस्त्र, हाथों में शंख, धन एवं गवा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org