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धर्मशास्त्र का इतिहास व्यवस्थित प्राणायाम आजकल प्रातः एवं सायं काल की संध्या में किया जाता है । ओम् या मन्त्र के मौन जप के साथ प्राणायाम सगर्भ या सबीज कहलाता है। बिना ओम् एवं मन्त्र के जो प्राणायाम होता है उसे अगर्भ या अबीज कहा जाता है। सबीज दोनों में अधिक अच्छा माना गया है । शान्ति० (३०४६=३१६६-१० चित्रशाला संस्करण) ने सगुण एवं निर्गुण प्राणायाम का उल्लेख किया है। योगभाष्य (योगसूत्र २१५२) ने एक उद्धरण दिया है-'प्राणायाम से बढ़कर कोई तप नहीं है, इससे मलों की विशुद्धि होती है और ज्ञान की दीप्ति चमक उठती है' (तपो न परं प्राणाय मात्ततो विशुद्धिर्मलानां दीप्तिश्च ज्ञानस्य)।
हठयोगप्रदीपिका (२।४४) ने प्राणायाम के आठ प्रकार बतलाये हैं। दो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण, यथाउज्जायो एवं भस्त्रिका का वर्णन श्री कुवलयानन्द ने अपनी पुस्तक 'प्राणायाम' के अध्याय ४ (पृ० ६७-६८) एवं अध्याय ६ (पृ० १०१-११५) में किया है और अन्य छह, यथा-सूर्यभेदन, शीत्कारी, शीतलो, भ्रामरी, मुर्छा एवं प्लाविनी का उल्लेख उस पुस्तक के भाग २ में हुआ है । हठयोगप्रदीपिका (२।४८-७०) ने इन आठ प्राणायामों का विस्तृत वर्णन उपस्थित किया है । हम यहाँ पर स्थानाभाव से उनका उल्लेख नहीं करेंगे।
डा० रेले ने अपने ग्रन्थ 'मिस्टिरिएस कुण्डलिनी' में स्वयंसंचालित स्नायु-मण्डल का चित्र खींचा है, जो पाश्चात्य शरीर-विज्ञान के अनुरूप है। उसी चित्र में उन्होंने ६ चक्र भी प्रदर्शित किये हैं और उनके स्थान भी बतलाये हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने सहस्रारचक्र भी बनाया है। उन्होंने प्रतिपादित किया है कि कुण्डलिनी दाहिनी 'बंगस' स्नायु है, जो उनकी मौलिक धारणा है । उनकी पुस्तक बड़ी मनोरम है और उ होने योगाभ्यास से सम्बन्धित एक विशद क्षेत्र की खोज की है। उन्होंने पाश्चात्य शरीर-विज्ञान का गम्भीरता से अध्ययन किया है, किन्तु भूमिका में उन्होंने यह स्वीकार किया है कि भारतीय योगाभ्यास-सम्बन्धी उनकी व्याख्याएँ सम्भावित निर्देश मात्र हैं। किन्तु यह अवलोकनीय है कि सर जॉन वुड्रौफ महोदय ने, जिन्होंने भारतीय योग एवं तन्त्र ग्रन्थों का गम्भीर अध्ययन किया है और जिन्होंने डा० रेले के ग्रन्थ पर प्राक्य स्पष्ट कह दिया है कि डा० रेले की कुण्डलिनी-सम्बन्धी स्थापना उनको स्वीकार्य नहीं हो सकती । ड.. उडीफ का कथन है कि कुण्डलिनी कोई स्नायु नहीं है और न कोई शारीरिक या मानसिक पदार्थ ही है, प्रत्यत वह दोनों के लिए एक आधार मात्र है। श्री कुवलयानन्द ने डा० रेले की पुस्तक की चर्चा करते हए (प्राणायाम. भाग १ पृ० ५७) यह लिखा है कि डा० रेले ने प्रयोगशाला में कोई प्रयोग नहीं किया और न उन्होंने योग के विद्याथियों से परामर्श ही ग्रहण किया, अत: उनकी बातें सन्दिग्ध हैं । श्री कुवलयानन्द ने यह भी कहा है कि स्वामी विवेकानन्द के राजयोग-सम्बन्धी भाषण भी डा० रेले के ग्रन्थ में पाये जाने वाले दोषों से खाली नहीं हैं। स्वामी कुवलयानन्द (पृ० १२१-१२६) ने स्वास्थ्य, फेफड़ों को स्वस्थ क्रियाओं, पाचन-सम्बन्धी अंगों, हृदय, प्लीहा, वृक्क आदि की स्वस्थ क्रियाओं के लिए प्राणायाम को बहुत उपयोगी ठहराया है। उनके मत से प्राणायाम का आध्यात्मिक महत्त्व बहुत बड़ा है।
प्रत्याहार की परिभाषा योगसूत्र २।५४ में हुई है १५ - 'जब इन्द्रियों का अपने विषयों से संयोग या सम्पर्क नहीं होता (अर्थात् वे उनसे पृथक् कर ली जाती हैं या लौटा ली जाती हैं, क्योंकि मन का निरोध
६५. स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः । ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम् । यो० सू (२१५४-५५) । 'प्रत्याहार' शब्द प्रति+आ+ह से बना है । राजमार्तण में व्याख्या है-'इन्द्रियाणि विषयेभ्यः प्रतीपमानीयन्तेस्मिन्निति प्रत्याहारः।' प्रत्याहार का शाब्दिक अर्थ है 'पीछे ले आना, लौटा लाना।' भाष्य में व्याख्या
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