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योग एवं धर्मशास्त्र धारणासु च योग्यता मनसः । ) गोरक्षशतक (५४) में आया है-'योगी सदा आसन से रोगों को मिटाता है, प्राणायाम से पातकों को काटता है तथा प्रत्याहार से मनोविकार दूर करता है ।१४ स्मृतियों में आया है कि पातकों को दूर करने में प्राणायामों से सहायता प्राप्त होती है । देखिए मनु (११।२४८ = वसिष्ठ २६।४), बौधायनधर्मसूत्र (१।३१) एवं शंखस्मृति (१२।१८-१६), जहाँ यह आया है कि यदि व्याहृतियों एवं प्रणव (ओम् ) के साथ प्रतिदिन १६ प्राणायाम किये जायें तो एक मास में ब्रह्महत्या के पाप से भी छुटकारा मिल जाता है । मनु (११११६६ एवं २०१) में आया है कि एक प्राणायाम कर लेने से हलके-फुलके दोष दूर हो जाते हैं या गवे या ऊंट की सवारी करने का दोष दूर हो जाता है या कुत्ता, सियार, अश्व, ऊँट, सअर या मानव के काटने से उत्पन्न अशुद्धि दूर हो जाती है । याज्ञ० (३।३०५) ने व्यवस्था दी है कि एक सौ प्राणायाम कर लेने से सभी पापों, उपपातकों तथा ऐसे पापों से, जिनके लिए किसी प्रायश्चित्त की कोई व्यवस्था नहीं है, छुटकारा मिल जाता है। मनु (२१८३== वसिष्ठ १०१५) एवं विष्णुधर्मसूत्र (५५।८२) में आया है'एक अक्षर (ओम्) परब्रह्म (का प्रतिनिधि) है तथा प्राणायाम परम तप है।'
यह द्रष्टव्य है कि जैनों के महान् आचार्य हेमचन्द्र ने प्राणायामों की भर्त्सना की है और कहा है कि उनसे मन को आराम नहीं प्राप्त होता। पूरक, कुम्भक एवं रेचक में परिश्रम होता है और प्राणायाम से मुक्ति में रुकावट आती है। देखिए हेमचन्द्र का योगशास्त्र (६ठा प्रकाश, श्लोक ४-५, जैन ग्रन्थमाला, सरत, संवत् १६६५ में प्रकाशित) ।
पूरक के उपरान्त कुम्भक करने से नाड़ियों, हृदय एवं फेफड़ों पर दबाव पड़ता है और असावधानी तथा शीघ्रता से ऐसा अभ्यास करने से इन शरीरांगों को ऐसी हानि प्राप्त हो जा सकती है जो कभी मिटायी नहीं जा सकती। जो लोग फेफड़ों एवं हृदय के रोगी हैं उन्हें अपने से ही प्राणायाम नहीं आरम्भ कर देना पाहिए, प्रत्युत उन्हें किसी दक्ष व्यक्ति से परामर्श ले लेना चाहिए। बहुत पहले स्वामी विवेकानन्द ने योग के विद्यार्थियों से यह कहा है कि उन्हें यह जान लेन चाहिए कि गुरु से सीधा सम्पर्क स्थापित करके ही वे योगाभ्यास करें। कुछ अपवाद हो सकते हैं, किन्तु बिना गुरु के योग का ज्ञान प्राप्त करना अच्छा नहीं है। योगसत्र में कुल १६५ सूत्र हैं, जिनमें केवल ५ सूत्र (२।४६-५३) प्राणायाम-सम्बन्धी हैं, और ये ५ सूत्र भी सामान्य रूप वाले ही हैं । इससे प्रकट होता है कि पतञ्जलि ने यह चाहा है कि योगी केवल इन सत्रों को पढकर या सुनकर ही प्राणायाम का अभ्यास न आरम्भ कर दे, प्रत्युत किसी प्रवीण एवं दक्ष योगी के निर्देश में ही ऐसा करे ।
यह द्रष्टव्य है कि पतञ्जलि ने प्राणायाम के लिए यह नहीं व्यक्त किया है कि उसके साथ ओम या गायत्री
का मौन या मन्द जप हो। किन्तु स्मृतियों ने सन्ध्यावन्दन के बीच में प्रतिदिन प्राणायाम की व्यवस्था दी है। याज्ञ० (१।२२) में आया है कि तीन उच्च वर्गों के लोगों को प्रतिदिन स्नान करना चाहिए, मन्त्रों (ऋ० १०६१-३), आपो हिष्ठा आदि) के साथ मार्जन करना चाहिए, प्राणायाम करना चाहिए, सर्य की पंजा एवं गायत्री का जप (ऋ० ३।६२।१०) करना चाहिए, प्राणायाम में व्याहृतियों के साथ गायत्री का तीन बार जप करना चाहिए, प्रत्येक गायत्री पाठ के पूर्व ओम् और उपरान्त शिरस् होना चाहिए । याज्ञ• द्वारा
६४. आसनेन रुजो हन्ति प्राणायामेन पातकम् । विकारं मानसं योगी प्रत्याहारेण सर्वदा ॥ गोरमशतक (५४) ।
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