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योग एवं धर्मशाला
१९७ हो चुका है) और इस प्रकार वे स्वयं चित्त (मन) के अनुरूप हो उठती हैं, तब प्रत्याहार होता है। जब चित्त, योगी द्वारा निरुद्ध कर लिये जाने पर, इन्द्रिय-विषयों, यथा--स्वर (शब्द), स्पर्श, रूप, रस (स्वाद) एवं गन्ध से संयुक्त नहीं रहता और ज्ञानेन्द्रियाँ भी उससे पृथक् हो जाती हैं (या असम्बन्धित हो जाती हैं) तो इन्द्रियाँ स्वयं चित्त के अनुरूप हो उठती हैं (इसी से सूत्र में 'अनुकार इव' शब्दों का प्रयोग हुआ है)। इस (असंप्रयोग) से इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त हो जाता है । भावना यह है कि इन्द्रियविषयों से चित्त को हटाने पर इन्द्रियाँ भी उनके संयोग से हट जाती हैं। जब चित्त एकाग्र हो जाता है तो इन्द्रियाँ चित्त के साथ ही विषयों (अर्थात् पदार्थों) का परिज्ञान नहीं करतीं । प्रत्याहार चित्त की बाह्य क्रियाओं (बहिर्गामी गतियों) का निरोध है और इन्द्रियों के दासत्व से इसे स्वतन्त्र करना है। शान्ति० (१८८।५-७=१६५।६-७ चित्रशाला) में भी ऐसा आया है। विष्णुपुराण (५।१०।१४) ने प्रत्याहार की ओर संकेत किया है (इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्य: प्रत्याहार इवाह रत्', अर्थात् जिस प्रकार प्रत्याहार इन्द्रियों को उनके विषयों से दूर हटाता है उसी प्रकार शरद ने जलों की मलिनता दूर कर दी) ।६६ वाचस्पति ने विष्णुपुराण से दो श्लोक उद्धृत किये हैं जिनमें योगसूत्र के ही विशिष्ट शब्द प्रयुक्त हैं, सम्भवत: इस पुराण ने योगसूत्र से ही आधार लिया है। देवलधर्मसूत्र ने प्रत्याहार की व्याख्या की है--'जब मन अपने अणुत्व (सूक्ष्मत्व), चापल्य, लाघव (विचारशून्यता) या अपनी शक्ति के फलस्वरूप योगभ्रष्ट हो जाता है तो उसे (चित्त या मन को) पुनः आत्मा की ओर लाकर उसमें (आत्मा में) प्रतिष्ठापित करना ही प्रत्याहार है।' कूर्मपुराण (२।११।३८) ने इसकी परिभाषा यों की है-'प्रत्याहार उन इन्द्रियों का निग्रह है जो स्वभावत: इन्द्रियविषयों से आकृष्ट हो उटती हैं ।'६७ देखिए शान्ति० (२३२।१३)।
हैवषयसंप्रयोगाभावे चित्तस्वरूपानुकार इवेति चित्तनिरोधे रित्तदनिरुद्धनीन्द्रियाणि नेतरेन्द्रियजयवदुपायान्तरमपेक्षन्ते । यथा मधुकरराजं मक्षिका उत्पतन्तमनूत्पतन्ति निविशन्तमनु निविशन्ते तद्रियाणि चित्तनिरोधे निरुद्धानीत्येष प्रत्याहारः।' मधुकरराज एवं मधु निकालने वाली मक्षिकाओं का उदाहरण प्रश्नोपनिषद् (२।४) में भी आया है-'तद्यथा मक्षिका मधुकरराजानमुरकामन्तं सर्वा एवोत्क्रामन्ते तरिमश्च प्रतिष्ठमाने सर्वा एव प्रातिष्ठन्ते । एवं वामनश्चक्षुःश्रोत्रं च।' यह सूत्र कई प्रकार से विवेचित हुआ है, किन्तु भाष्य ने जैगीषध्य के मत का अनुसरण किया है।
६६. शब्दादिष्वनुषक्तानि निगृह्याक्षाणि योगवित् । कुर्याच्चित्तानुकारीणि प्रत्याहारपरायणः ॥ वक्ष्यता परमा तेन जायते निश्चलात्मनाम् । इन्द्रियाणामवश्यस्तैर्न योगी योगसाधकः॥ विष्णुपु० (६७।४३-४४); कृत्यकल्प० (मोक्षकाण्ड, पृ० १७३) एवं अपरार्क (पृ० १०२५) ने भी इसे उद्धत किया है । मार्कण्डेय पु० (३६४१, कलकत्ता संस्करण, ३६०४१-४२, बैंक० संस्करण) में आया है-'शब्दादिम्योऽनिवृत्तानि यदक्षाणि यतात्मभिः । प्रत्याहियन्ते योगेन प्रत्याहारस्ततः स्मृतः ॥ कृत्यकल्प० (मोक्षकाण्ड, पृ० १७३)।
६७. अणुत्वाच्चापल्याल्लाघवाबद्वलवत्त्वाद्वा योगमष्टस्य मनसः पुनः प्रत्यानीयार्थे योजनं प्रत्याहारः । देवल (कृत्यकल्प० मोक्ष०, पृ० १७३); अपराकं (पृ० १०२५) ने इसे हारीत का माना है । इन्द्रियाणां विचरतां विषयेषु स्वभावतः । निग्रहः प्रोच्यते सद्भिः प्रत्याहारस्तु सत्तम । कूर्मपुराण (२॥११॥३८) । स्कन्द०, काशीखण्ड (४१११०१); इन्द्रियाणां हि चरतां विषयेषु यदृच्छया । यत्प्रत्याहरणं युक्त्या प्रत्याहारः स उच्यते ॥ 'युक्त्या का अर्थ है "विषयदोषदर्शनेन ।
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