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धर्मशास्त्र का इतिहास की ध्वनि मिलती है।४५ रघुवंश (१३।५२) में वीरासन का उल्लेख है, शंकराचार्य (वेदान्तसूत्र ४।१।१० पर) ने कहा है कि पद्मकासन एवं अन्य विशिष्ट आसनों का उद्घोष योगशास्त्र में हुआ है। शंकराचार्य के मतानुसार वे० सू० (४।१।७-१०) ने गीता (६।११) में उल्लिखित आसन की ओर संकेत किया है। उसने शारीरिक क्रियाओं की शिथिलावस्था एवं शरीरावस्थिति को 'ध्यायतीव पृथिवी' (छान्दोग्योपनिषद् ७।६।१) नामक शब्दो द्वारा व्यक्त किया है। हठयोगप्रदीपिका (१।१७) के अनुसार आसन हठयोग का प्रथम अंग है। शिव ने ८४ आसनों की चर्चा की है, जिनमें सिद्ध, पद्म, सिंह एवं भद्र नामक चार आसन अत्यन्त आवश्यक (सारभृत) हैं, और इसने सिद्धासन को सर्वश्रेष्ठ आसन माना है और उसका वर्णन किया है (११३५)। हठयोगप्रदीपिका ने १११६-५५ में १५ आसनों के नाम लिये हैं और उनका वर्णन किया है। ध्यानबिन्दु उप० का कथन है कि आसनों की संख्या लम्बी है, किन्तु उसने केवल चार के नाम लिये हैं और उन्हें ही अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना है। शिवसंहिता (३।१००) एवं घेरण्डसंहिता (२११) में आया है कि आसन ८४ हैं, किन्तु गोरक्षशतक का कथन है कि आसन उतने हैं, जितनी जीवित जातियाँ हैं, और वे सभी शिव को ज्ञात हैं, किन्तु ८४ लाख आसनों में शिव ने केवल ८४ को चुना है जिनमें सिद्धासन एवं पद्मासन सर्वोत्तम हैं (११५-६)।
_ 'योग' शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थ में कई मामलों में होता है। भगवद्गीता में, जो स्वयं योगशास्त्र है और जिसका प्रत्येक अध्याय योग कहा जाता है, यह बात पायी जाती है, विशेषत: उस विधि या विधियों के विषय में जिससे या जिनके द्वारा परम ब्रह्म से तादात्म्य बढ़ाया जाता है। उदाहरणार्थ, गीता में ऐसे प्रयोग हुए हैं, यथाअभ्यासयोग (८1८, १२।६), कर्मयोग (३।३ एवं ७), ज्ञानयोग (३।३), भक्तियोग (१४।२६) । कुछ अन्य ग्रन्थों में भी यही बात पायी जाती है। कुछ पाश्चात्य लेखकों ने योग के कई प्रकारों का उल्लेख किया है, यथा--मन्त्रयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, राजयोग एवं हठयोग। देखिए एफ्० यीट्स-ब्राउन कृत 'बंगाल लैंसर' (१६३०, पं० २८४), आर० सी० ओमन कृत 'दि मिस्टिक्स् ऐसेटिक्स एण्ड सेण्ट्स आव इण्डिया' (१६०५ का संस्करण, पृ० १७२), जेराल्डाइन कॉस्टर कृत 'योग एण्ड वेस्टर्न साइकॉलॉजी' (पृ० १०), ऐलेन डनीलो का ग्रन्थ (पृ० ८३, जहाँ मन्त्रयोग, लययोग, कुण्डलिनीयोग आदि का उल्लेख है)। कुछ पश्चात्कालीन ग्रन्थ, यथायोगतत्त्वोपनिषद एवं शिवसंहिता (५६) ने मन्त्रयोग, हठयोग, लययोग एवं राजयोग नामक चार योगों की चर्चा की है। इन
४५. तद्यथा पद्मासनं वीरासनं भद्रासनं स्वस्तिकं दण्डासनं सोपाश्रयं पर्यकं क्रौञ्चनिषदनं हस्तिनिषदनमुष्ट्रनिषदनं समसंस्थानं स्थिरसुखं यथासुखं चेत्येवमादीनि । भाष्य (योगसूत्र २।३४६ पर)। क्रौञ्चनिषदन एवं उसके आगे के दो आसनों के विषय में वाचस्पति का कथन है-'क्रौञ्चादीनां निषण्णानां संस्थानदर्शनात् प्रत्येतव्यानि।' सोपाश्रयं (किसी पीठोपधान के सहारे) 'योगपट्टकयोगात् सोपाश्रयम्' (वाचस्पति)। एपि० इण्डिका (जिल्द २१, पृ० २६०) में राष्ट्रकूट राजा खोटिंग के कोलागल्लु शिलालेख (शक संवत् १८६, फरवरी १७, सन् ६६७ ई०) में दण्डासन एवं 'लोहासनी' नामक आसनों का उल्लेख है। योग का प्रभाव समाज में इतना अधिक था कि बहुत-से शिलालेखों में योग पद्धतियों का उल्लेख है।
४६. योगो हि बहुधा ब्रह्मन् भिद्यते व्यवहारतः। मन्त्रयोगो लयश्चैव हठोसौ राजयोजकः॥ मातृकादियुतं मन्त्रं द्वादशाब्दं तु यो जपेत् । क्रमेण लभते ज्ञानमणिमादिगुणान्वितम् ॥ अल्पबुद्धिरिमं योगं सेवते साधकाधमः ॥ लययोगश्चित्तलयः कोटिशः परिकीर्तितः। गच्छंस्तिष्ठन् स्वपन् भुजन् ध्यायनिष्कलमीश्वरम् ॥ स एव लययोगः स्यात.... आदि। योगतत्त्वोपनिषद् (१६०२१-२३)।
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