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धर्मशास्त्र का इतिहास ज्ञान नहीं है और योग के समान कोई आध्यात्मिक शक्ति नहीं है। इसने पुनः कहा है कि योग आठ प्रकार (श्लोक ७) का होता है; और श्लोक ६ में धारणा एवं प्राणायाम का उल्लेख है। आश्वमेधिकपर्व (१६।१७) में सम्भवत: प्रत्याहार की ओर संकेत है।
भगवद्गीता एवं योगसूत्र में विलक्षण समानता दृष्टिगोचर होती है।१७ उदाहरणार्थ, योगसूत्र में योग की परिभाषा है कि चित्तवृत्ति का निरोध ही योग है। मिलाइए गीता (६।२०)। गीता योगी को अपरिग्रही बनने के लिए बल देती है (६।१०) और योगसूत्र (२।३०) में अपरिग्रह पाँच यमों में परिगणित है। इसी प्रकार वह आसन या स्थान, जहाँ योगी को अभ्यास करना होता है, स्थिर और आरामदायक होना चाहिए (योगसूत्र), यही बात गीता बिस्तार से कहती है । ८।१२ में गीता ने योगधारणा का उल्लेख किया है । गीता ६।२५ में आया है कि मन वास्तव में अस्थिर होता है, उसे संयमित करना बड़ा कठिन है, किन्तु अभ्यास एवं वैराग्य से उसे नियन्त्रण में रखा जा सकता है। यही बात योगसूत्र (१११२) ने भी कही है और इन्हीं दो साधनों की ओर संकेत किया है। गीता (५।४-६) का कथन है कि अज्ञ लोग ही सांख्य एवं योग को भिन्न मानते हैं, किन्तु जो इनमें से किसी एक का आश्रय लेता है वह दोनों द्वारा उद्घाटित फल की प्राप्ति करता है, और जो दोनों को समान समझता है, वह सत्यावलोकन करता है । यहां पर 'सांख्य' का अर्थ है 'संन्यास' और 'योग' का अर्थ है 'कर्मयोग' ।
पतञ्जलि के योगसूत्र ने कहीं भी विश्व के विकास की योजना पर स्पष्ट रूप से प्रकाश नहीं डाला है। किन्तु इसमें पर्याप्त सामग्री है, जिसके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि यह सांख्य-पद्धति के कुछ सिद्धान्तों को स्वीकार करता है, यथा-प्रधान का सिद्धान्त, तीन गुण एवं उनकी विशेषताएँ, आत्मा का स्वरूप एवं कैवल्य (अन्तिम मुक्ति में आत्मा की स्थिति)। यह बात योगसूत्र के कुछ निर्देशों से स्थापित की जा सकती है। यो० सू० (३।४८) ने इन्द्रियों के निरोध से उत्पन्न हुए फलों का उल्लेख किया है, जिनमें एक है प्रधानजय (विश्व के प्रथम कारण प्रधान का जीतना, जैसा कि सांख्य ने कहा है) । योगसूत्र ने कहीं भी प्रधान एवं इसके विकास या उद्भव की चर्चा नहीं की है ।अत: ऐसा प्रकट होता है कि सांख्य ने प्रधान के विषय में जो कहा है, योग उसे ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लेता है । ८ आत्मा के विषय में योगसूत्र का कथन है-'शुद्ध चेतन
१६. मिलाइए 'स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः ।' योगसूत्र (२०५४); और देखिए शान्ति० २३२।१३-'मनसश्चेन्द्रियाणां च कृत्वकाय्यं समाहितः। प्राग्नात्रापररात्रेषु धारयन्मन आत्मना ।
१७. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। योगसूत्र (२२); मिलाइए गीता--(६।२०) यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया; स्थिरसुखमासनम् । योगसूत्र (२०४६); मिलाइए गीता ६।११-१२ शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः। नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥ ... समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः । असंशयं महाबाहो मनो दुनिग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ गीता ६।३५; मिलाइए 'अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।' योगसूत्र १।१२।
१८. ततो मनोजवित्वं विकरणाभावः प्रधानजयश्च । यो० सू० (३।४८) । ये तीन पूर्णताएं हैं। 'प्रधानजय' के विषय में व्यासभाष्य यों है-सर्वप्रकृतिविकारवशित्वं... प्रधानजयः। इति एतास्तिस्रः सिद्धयो मधुप्रतीका उच्यन्ते ।'
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