Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 272
________________ योग एवं धर्मशास्त्र २५५ १।२८) ने एक श्लोक उद्धृत किया है जो विष्णुपुराण (६।६।२) का है । विद्यमान पुराणों में विष्णुपुराण आरम्भिक पुराणों में परिगणित है और वह तीसरी शती के आस-पास की रचना कहा जा सकता है, इसके पश्चात् नहीं। अत: योगभाष्य, जो महाभारत एवं विष्णुपुराण को उद्धृत करता है, चौथी शती की रचना कहा जा सकता है। इसी से योगसूत्र को हम दूसरी या तीसरी शती के पश्चात् का नहीं मान सकते। यद्यपि प्रस्तुत लेखक के मत से वह योग, जिसका खण्डन वे० सू० (२।१।३) में हुआ है, योगसूत्र का नहीं है, प्रत्युत वह शान्तिपर्व वाला है, तथापि योगसूत्र का काल ई० पू० दूसरी शती के पूर्व रखना संभव नहीं है। न-केवल कुछ उपनिषदों ने योग की पद्धति एवं व्यवहारों (आचरणों) पर प्रकाश डाला है, प्रत्युत महाभारत ने भी योग-सम्बन्धी विषयों का विवेचन किया है। यहाँ कुछ उदाहरण उपस्थित किये जाते हैं । शान्ति० (अध्याय २३२, २४१ चित्रशाला प्रेस संस्करण) में ऐसा आया है कि योग के मार्ग में काम, क्रोध, लोभ, भय एवं स्वप्न (निद्रा) पाँच दोष पाये जाते हैं। इसके उपरान्त उसमें इन दोषों के शमन के उपाय भी बताये गये हैं। इस अध्याय में एक महत्त्वपूर्ण बात यह कही गयी है कि हीन वर्ण का पुरुष या नारी भी धर्मानुकूल आचरण करने से इस मार्ग (योग) के द्वारा परम लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है (शान्ति० २३२॥३२) । इसी अध्याय में (श्लोक २५) योगाभ्यास के लिए योगी के निवास का उल्लेख है, ऐसे पर्वत एवं गुफाएँ, जहाँ कोई न रहता हो, मन्दिर, सूने घर, जिससे कि एकाग्रता स्थापित हो सके। योगी को अपनी प्रशंसा या निन्दा करने वालों को समान दृष्टि से देखना चाहिए और किसी पर अच्छा या बुरा प्रभाव डालने का प्रयास नहीं करना चाहिए। शान्ति के अध्याय २८६ (श्लोक ३७) ने 'धारणा' का उल्लेख किया है और कहा है कि वह योगी, जिसने आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त कर ली है, अपने को सहस्रों शरीरों में स्थानान्तरित कर सकता है और उन शरीरों के माध्यम से इस विश्व में ममण कर सकता है, और यह योग-मार्ग विज्ञ ब्राह्मणों के लिए भी दुर्गम है, इस पर कोई सरलतापूर्वक नहीं चल सकता; कोई व्यक्ति छुरे की तीक्ष्ण धार पर भले ही खड़ा हो जाय किन्तु योग-धर्म के अनुसार चलना उनके लिए, जिनका आत्मा पवित्र नहीं है, कठिन है।५ शान्तिपर्व (३०४।१) में ऐसा आया है कि सांख्य के समान कोई १४. योगदोषान् समुच्छिय पञ्च यान् कवयो विदुः। कामं क्रोधं च लोभं च भयं स्वप्नं च पञ्चमम्॥ क्रोधं शमेन जयति कामं संकल्पवर्जनात् । सत्त्वसंवेदनाद्धीरो निद्रामुच्छेत्तुमर्हति ॥ अप्रमादाद् भयं जह्याल्लोभं प्रज्ञोपसेवनात् । शान्ति० (२३२।४-७) । शान्ति० (२८६, ३०१ चित्रशाला) में भीष्म एवं युधिष्ठिर का संवाद है जिसमें पांच दोष कुछ भिन्न ढंग से रखे गये हैं, यथा-रागं मोहं तथा स्नेहं कामं क्रोधं च केवलम् । योगाच्छित्त्वादितो दोषान्पञ्चैतान प्राप्नुवन्ति तत् ॥ (श्लोक ११) । २६०वें अध्याय में पांच दोष यों हैंकामक्रोधौ भयं निद्रा पञ्चमः श्वास उच्यते। एते दोषाः शरीरेषु दृश्यन्ते सर्वदेहिनाम् ॥ उन पर नियन्त्रण करने के उपाय वैसे ही हैं जैसे अध्याय २३२ में, किन्तु श्वास के विषय में ऐसा आया है-'छिन्दन्ति पञ्चमं श्वास लध्वाहारतया नृप' (५५) । मिलाइए आप० ध० सू० (१।८।२३॥३-६)। १५. आत्मनां च सहस्राणि बहूनि भरतर्षभ । योगी कुर्याबलं प्राप्य तैश्च सर्वेमही चरेत् ॥ शान्ति (२८६२६) । शंकराचार्य (वे० स० १।३।२७) ने इसे स्मृतिवाक्य समझकर उद्धत किया है और टिप्पणी को है 'स्मृतिरपि... एवं जातीयका प्राप्ताणिमाद्यैश्वर्याणां योगिनामपि युगपदनेकशरीरयोगं दर्शयति ।' दुर्गस्त्वेष मतः पन्था ब्राह्मणानां विपश्चिताम् । न कश्चिद् व्रजति ह्यस्मिन् क्षेमेण भरतर्षभ ॥ सुस्थेयं क्षुरधारासु निशितासु महीपते । धारणासु तु योगस्य दुःस्थेयमकृतात्मभिः ॥ शान्ति० २८६०५० एवं ५४ । मिलाइए 'क्षुरस्य धारा निशिता कुरत्यया दुर्ग पथस्तत् कवयो वदन्ति ।' कठोप० (३।१४)। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

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