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धर्मशास्त्र एवं सांस्य
२४१ फारिका (४७) की टीका में लिखा है कि वार्षगण्य के मतानुसार अविद्या के पांच स्वरूप हैं ।२. योगसूत्रभाष्य ने ३।५३ पर वार्षगण्य के एक सूत्र को उद्धृत किया है। यह ऊपर दिखाया जा चुका है कि चीनी भाषा से जो टीका फिर से संस्कृत में लिखी गयी है, उसमें वार्षगण्य को पञ्चशिख के उपरान्त तथा ईश्वरकृष्ण के पूर्व का आचार्य कहा गया है। अत: पञ्चशिख एवं वार्षगण्य को एक ही व्यक्ति मानना कठिन है।
न केवल शान्तिपर्व ने ही सांख्यकारिका के सिद्धान्तों से सम्बन्धित सिद्धान्तों पर विचार-विमर्श उपस्थित किया है, प्रत्युत भगवद्गीता ने भी ऐसा किया है। कुछ उद्धरण यहाँ दिये जा रहे हैं। गीता (१३१५) में आया है-'महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यवतमेव च । इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥' इसमें २४ तत्त्वों का वर्णन है, और पुरुष को छोड़ दिया गया है तथा पञ्च तन्मात्राओं के स्थान पर पञ्च तत्त्वों का उल्लेख हुआ है। और देखिए (१३।१६-२०)-'प्रकृति पुरुषं चैव विड्यनादी उभावपि । विकाराँश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥ कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते । पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥ १४॥५-६ 'सत्त्वं रजस् तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः...'; ७४ 'भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ ७।१३, २।२८।' गीता (७।६ एवं ८) ने बल देकर कहा है कि परमात्मा उस सम्पूर्ण विश्व का मूल है जो आगे चल कर उसमें समाहित हो जाता है। यहाँ गीता सांख्य से स्पष्ट रूप से अलग खड़ी हो जाती है। गीता ने स्पष्ट रूप से 'सांख्य-कृतात्त' (सिद्धान्त) का उल्लेख किया है (१८।१३), जिसका अर्थ यह होता है कि तब तक सांख्य ने एक सिद्धान्त का रूप धारण कर लिया था, किन्तु किसी ऐसे ग्रन्थ की ओर कोई स्पष्ट संकेत नहीं है, जैसा कि हम वेद या वेदान्त (१५।१५ में) या ब्रह्मसूत्र (१३।४) के विषय में पाते हैं । १० -
तककुसु (बी० ई० एफ० ई० ओ०, १६०४, पृ० ४८) एवं कीथ (सांख्य सिस्टेम, पृ०७३-७६) ने विन्ध्यवास या विन्ध्यवासी को ईश्वरकृष्ण के ही समान माना है। मनुष्य की मृत्यु के उपरान्त आतिवाहिक शरीर के नास्तित्व के विषय में उनके विचार को कुमारिल ने व्यक्त किया है । ३१ डा० बी० भट्टाचार्य (जे० आई०
२६. पञ्च विपर्ययभेदा भवन्त्यशक्तिश्चः करणवैकल्यात् । सां० कारिका (४७); 'अविद्या-अस्मिताराग-द्वेष-अभिनिवेशाः ...पञ्च विपर्ययविशेषाः। ...पञ्चपर्वा अविद्येत्याह भगवान् वार्षगण्यः । सां० तत्त्वकौमुदी (वाचस्पतिकृत); अश्वघोष कृत बुद्धचरित (१२॥३३) में आया है : 'इत्यविद्या हि विद्वांसः पञ्चपर्वा समीहते । तमो मोहं महामोहं तामिस्रद्वयमेव च ॥ श्वेताश्व० उप० (११५) में भी 'पञ्चाशद्भदा पञ्चपर्वामधीमः ' आया है। कर्मपुराण (२।२।१२६) में ऐसा आया है कि कपिल ने जैगीषव्य एवं पञ्चशिख दोनों को पढ़ाया है। ऐसा कहना कठिन है कि इस पुराण के समक्ष कोई प्राचीन परम्परा इस विषय में थी अथवा नहीं।
___३०. हमने पहले ही पांच सिद्धान्तों (कृतान्त-पञ्चक) का उल्लेख कर दिया है, यथा-सांख्य, योग, पञ्चरात्र, शंव एवं पाशुपत ।
३१. अन्तराभवदेहस्तु निषिद्धो विन्ध्यवासिना। तदस्तित्वे प्रमाणं हि न किंचिदवगम्यते ॥ श्लोकवातिक, आत्मवाद (६२, १० ७०४) जिस पर न्यायरत्नाकर नामक टीका यों है-'यदपि आतिवाहिकं नाम शरीरं पूर्वोतरदेहयोरन्तराले ज्ञानसन्तानसन्धारणार्थ कल्प्यते तदपि विन्ध्यवासिना निराकृतमित्यादि ।' कमलशील ने सांख्य एवं उसके सत्कार्यवाद की आलोचना करते हुए "विन्ध्यवासी' (जिसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि वह व्यक्ति जो विन्ध्य पर्वत की जंगली जाति का हो) शब्द की जो रुद्रिल के लिए प्रयुक्त है, खिल्ली उड़ायी है-'यदेव वधि तत् क्षीरं यत्क्षीरं सहधीति च। वदता रुद्रिलेनैव ख्यापिता विन्ध्यवासिता॥'
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