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योग एवं धर्मशास्त्र
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कोई सम्बन्ध नहीं रखता। ऋ० (८१३१६) में ब्रह्मा पुरोहित का कथन है-'जिसके द्वारा यतियों से भगु को धन दिया गया, और जिसके द्वारा तुमने प्रस्कण्व की सहायता (या रक्षा) की।' यहाँ पर इन्द्र यतियों के विरोध में है। ऋ० (८।६।१८) में ऋषि का कथन है-'हे वीर इन्द्र, यतियों एवं भृगुओं में, जिन्होंने तुम्हारी प्रार्थना की है, केवल मेरी ही प्रार्थना सुनो।' यहाँ सायण ने व्याख्या की है-'यतय: अंगिरसः ।' जो भी हो, यहाँ यति लोग इन्द्र के भक्त की भांति प्रदर्शित हैं। किन्तु अन्य संहिताओं में ऐसा कहा गया है कि इन्द्र ने यतियों को भेड़ियों या वृकों के लिए फेंक दिया। आगे चलकर 'यति' शब्द के अर्थ में परिवर्तन हो गया। इन संहिता-वचनों में 'यति' लोग वैदिक कृत्यों के विद्वेषी-से लगते हैं, किन्तु उन्होंने क्या किया, जिसके कारण इन्द्र को उनकी हत्या करने वाला कहा गया, यह स्पष्ट नहीं हो पाता। अथर्ववेद (२।५।३) में इन्द्र को वृत्र का वैसा ही घातक कहा गया है जैसा कि यतियों का। कुछ उपनिषदें ऐसा प्रकट करती हैं कि 'यति' ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने सांसारिक कर्म छोड़ दिये थे, जो योगाभ्यास करते थे और आत्मज्ञान के लिए प्रयास करते थे तथा ब्रह्मज्ञानी होते थे। देखिए इस विषय में मुण्डकोपनिषद् (३।११५, यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः, एवं ३।२।६, संन्यास योगाद्यतयः शुद्धसत्त्वाः) । हावर (डाई अन्जे डर योग-प्रैक्सिसे, १६२२, १० ११) के समान कुछ लोगों का कथन है कि अथर्ववेद (मण्डल १५) में वर्णित व्रात्य लोग क्षत्रिय जाति के आनन्दी जीव थे और योगियों के पूर्वभावी थे।
कुछ उपनिषदों में 'योग' शब्द उसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जैसा वह योगसूत्र में प्रयुक्त है । कटोपनिषद् (२।१२) में ऐसा आया है२ 'विज्ञ लोग योग द्वारा परमात्मा का ध्यान करके तथा मन को अन्तरात्मा में स्थिर करके आनन्द एवं चिन्ता से मुक्त हो जाते हैं' (अध्यात्मयोगाधिगमेन) । वही उपनिषद् कहती है कि ६।२ में वर्णित स्थिति को ही योग कहते हैं, क्योंकि उसमें इन्द्रियाँ (तथा मन एवं बुद्धि) स्थिर एवं संयमित रहती हैं। कठोपनिषद् (६।१८) में आया है कि नचिकेता ने यम द्वारा प्रवर्तित योगविधि एवं विद्या को जानकर ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया। 'योग' शब्द तै० उप० (२।४) में भी आया है, जहाँ विज्ञानमय आत्मा के विषय में कहते हुए योग को इसका आत्मा कहा गया है (जिसका वास्तविक अर्थ संदिग्ध है)। और देखिए श्वेताश्वतरोपनिषद् (२।२ एवं ४।१३) । प्रश्नोपनिषद् (५॥५-६) ने 'ओम्' की तीन मात्रओं (अ, उ, म् ) का उल्लेख किया है। श्वेताश्व० उप० (१।३) में 'ध्यानयोग' शब्द आया है। श्वेताश्व० उप० (२८१३) में 'आसन' एवं 'प्राणायाम का उल्लेख है तथा सफल योगाभ्यास के लक्षण प्रकट किये गये हैं। छान्दोग्योपनिषद् (८।१५) ने सम्भवतः 'प्रत्याहार' (यद्यपि यह शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ है) की ओर निर्देश किया है, यथा--'आत्मनि सर्वेन्द्रियाणि प्रतिष्ठाप्य' (सभी इन्द्रियों को आत्मा में प्रतिष्ठापित करके)। प्रतीत होता है, ब० उप०' (१।५।२३) ने प्राणायाम की ओर संकेत किया है--(तस्मादेकमेव व्रतं चरेत् प्राण्याच्चैव अपा
२. तां योगमिति मन्यते स्थिरामिन्द्रियधारणाम् । कठोपनिषद् (६।२); मृत्युप्रोक्तां नचिकेतोऽथ लब्ध्वा विद्यामेतां योगविधि च कृत्स्नम् । ब्रह्मप्राप्तो विरजोऽभूद्विमृत्यु रन्योन्येवं यो विदधात्ममेव ॥ कठ० ६।१८ । इस अन्तिम में महत्त्वपूर्ण शब्द हैं 'कृत्स्नं योगविधिम्', भावना यह है कि कठोपनिषद् के काल तक योग का पूर्ण विकास हो चुका था, किन्तु उस उपनिषद् ने इसे विस्तार से उल्लिखित नहीं किया। आगे यह भी द्रष्टव्य है कि 'एतां विद्या' 'ब्रह्मविद्या' की ओर निर्देश करता है और 'योगविधि' पृथक् रूप से, सम्भवतः ब्रह्मज्ञान-प्राप्ति के साधन के रूप में वर्णित है।
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