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अध्याय
३२
योग एवं धर्मशास्त्र
उपनिषदों, महाभारत, भगवद्गीता तथा पुराणों में सांख्य एवं योग का उल्लेख एक साथ हुआ है, और उनका पारस्परिक सम्बन्ध भी इन ग्रन्थों में समान ही रहा है । श्वेताश्व० उप० ( ६ । १३), वनपर्व ( २।१५), शान्तिपर्व ( २२८ २८, २८६।१, ३०६/६५, ३०८।२५, ३२६।१००, ३३६०६६१, अनुशासनपर्व (१४ ३२३), भगवद्गीता (५।४-५ ), पद्मपुराण ( पातालखण्ड, ८५।११ ) में दोनों एक साथ उल्लिखित हैं ।
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यद्यपि सांख्य ने विश्व विकास के विभिन्न रूपों के सम्बन्ध में विवेचन करने वाले सभी ग्रन्थों को प्रभावित किया है, किन्तु इसे भारत में उतना सम्मान एवं आदर न प्राप्त हो सका, जितना योग को मिला अथवा अब भी मिलता है । योग शब्द 'युज् ' ( जोड़ना या मिलाना, रुधादि वर्ग की धातु) से निष्पन्न हुआ है । योग के बीज ऋग्वेद में भी पाये जाते हैं। ऋग्वेद ( ५८१ ।१ ) में आया -- ' विज्ञलोग, पुरोहित एवं यजमान अपने मनों को केन्द्रित करते हैं और प्रार्थनाओं को विज्ञ, महान् ( सविता ) में वे लगाते हैं, जो सभी प्रार्थनाओं को जानने वाला है। एक अन्य वैदिक मन्त्र भी मन के लगाने की बात करता है । 'योग' शब्द कई अर्थों में ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ है । सायण ने कई वचनों में 'योग' का अर्थ 'जो पहले से प्राप्त न हो उसे प्राप्त करना' के रूप में (ऋ० ११५२) लिया है । ऋ० (१।१८।७) में सदसस्पति (अग्नि) देव से यजमानों की प्रार्थनाओं (या विचारों) में विराजमान रहने को कहा गया है। ऋ० ( १ । ३४ । ६ ) में इसका तात्पर्य है 'युग या जुआ में लगाना' (कदा योगो वाजिनो रासभस्य येन यज्ञं नासत्योपयाथः) । 'योग' शब्द बहुधा 'क्षेम' के साथ (ऋ० ७७५४।३, ७।८६।८ में पृथक् रूप से ) आया है या सामासिक रूप में ( ऋ० १०।१६५५, योगक्षेमं व आदायाहं भूयासमुत्तमः) । प्रयुक्त हुआ है । ऋग्वेद में प्रयुक्त 'योग' शब्द के अर्थ तथा कुछ उपनिषदों एवं उत्तम संस्कृत -ग्रन्थों में प्रयुक्त 'योग' के अर्थ में बहुत लम्बे काल की दूरी पड़ जाती है । ऋ० (१०।१३६।२ - ३ ) में वातरशन के पुत्रों, मुनियों की चर्चा है, जो गन्दे एवं पिंगल वस्त्र धारण करते थे और कहते थे कि 'हम अपने जीवन के ढंग से अति आह्लादित हैं, उसी प्रकार प्रसन्न हैं जैसे कि मुनि लोग वायुओं का आश्रय लेते हैं, हे मरणशील लोगो, तुम केवल हमारे शरीर को देखते हो ।' यह प्रकट करता है कि अति प्राचीन काल में 'कुछ लोग तप करते थे, वे अपने वस्त्रों की चिन्ता नहीं करते थे और ऐसा सोचा करते थे कि उनका आत्मा में विलीन हो जायगा ( अर्थात् आत्मा अरूप है और अदृश्य होता है ) । ऋ० (८११७/१४ ) में इन्द्र को मुनियों का मित्र कहा गया है और मुनि को प्रत्येक देवता का मित्र कहा गया है ( १०।१३६ । ४ ) । किन्तु 'यतियों' की स्थिति कुछ पृथक थी । 'यति' शब्द ऋग्वेद में कई बार आया है, किन्तु अधिकांश में वह शब्द 'संन्यासी' से
भी वायु
१. पञ्चविंशतितत्त्वानि तुल्यान्युभयतः समम् । योगे सांख्येपि च तथा विशेषांस्तत्र मे शृणु ॥ शान्ति० (२२८/२८ - २३६।२६, चित्रशाला ) ।
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