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धर्मशास्त्र का इतिहास
षोडशिन्याय - जै० (१०१८३६) । 'अतिरात्रे षोडशिनं गृह्णाति' तथा 'नातिरात्रे गृह्णाति, अर्थसंग्रह (१० २४) ।
संयोगपृथक्त्वन्याय -- जै० ( ४ | ३ |५-७ ) । मेघा० ( मनु० २।१०७ ) ; परा० मा० ( ११, पृ० ६० ) ; प्राय० तत्त्व ( पृ० ४७४ ) ; एका० तत्त्व ( पृ० २६- ३० ) ; तिथितत्त्व ( पृ० ४४ ) ; नि० सि० ( पृ० ८४ ) । सकृत्कृते कृतः शास्त्रार्थः - शबर ( जं० ११ । १ । २८ एवं १२|३ | १० ) ; एका० तत्त्व ( पृ० ३२ ), उद्वाहतत्त्व ( पृ० १३३ ) ; महाभाष्य ( वार्तिक ४, पा० ४ । ११८४ ) । इस न्याय का प्रयोग सीमित होता है और बहुधा 'निमित्तावृत्तौ . . . ' नामक न्याय प्रयुक्त होता है ।
सकृच्छ्रतः शब्दस्तमेवार्थं गमयति- दायभाग ( ३।२६- ३०, पृ० ६७ ); मद० पा० ( पृ० ३६६ ) ।
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समं स्यादश्रुतित्वात् यह जै० (१०१३ ५३ ५५ ) का पूर्वपक्षसूत्र है । यह बहुधा प्रयोग में लाया जाता है, किन्तु जब असमान विभाजन होता है तो विशिष्ट व्यवस्था कर दी जाती है। मिता० ( याज्ञ० २।२६५), दायभाग (४८, पृ० ८०, स्त्रीधन विभाग ); स्मृतिच० (२, पृ० १५२ एवं २८५), कुल्लूक ( मनु ३ | १, समं स्यादश्रुतित्वादिति न्यायेन प्रति द्वादशवर्षाणि व्रताचरणम् ) ; परा० मा० ( ११२, पृ० ३६२ ) ; मदनरत्न, ( व्य०, पृ० २०४ ) ।
सप्तदश सामिधेनीन्याय - जै० (३६ ६ ) | 'सप्तदश सामिधेनीरनुब्रूयात्' ऐसे ऐतरेय ब्राह्मण (१1१ ) के संमान वचन जो किसी विशिष्ट यज्ञ में प्रयुक्त हुए बिना आये हैं, केवल विकृतियों के लिए ही प्रयुक्त होते हैं, प्रकृति के लिए नहीं । मिता० ( याज्ञ० १ २५६ ) ।
सर्वपरिदानाधिकरण – जै० (३|४|१७ ), जो तै० सं० (२२६।१०।१-२ ) पर आधृत है । तै० सं० की यह उक्ति ब्राह्मण को धमकाने या मार डालने को मना करती है । प्राय० तत्त्व ( पृ० ४७६ ) ; प्राय० वि० ( पृ० ६) ।
अपरार्क ( पृ० १०५३ ) ;
सर्वशक्त्यधिकरणत्याय - देखिए 'यथाशक्तिन्याय एवं एका० तत्त्व ( १० १८, २६ ) 1 सर्वशाखाप्रत्यय न्याय --- जै० (२।४।८-३३ ) | मिता० ( याज्ञ० ३ | ३२५ ) : स्मृतिच० ( १, पृ० ५); मदनपारिजात ( पृ० ११ एवं ६१ ); शुद्धितत्त्व ( पृ० ३७८, ३८० ) । सामान्यविशेषन्याय --- शबर (जै० ७।३।१६, बाध्यते च सामान्यं विशेषेण) एवं तन्त्रवा० ( पृ० १०३०, जै० ३।६१६, 'तत्र नाम विशेषेण सामान्यस्य निराक्रिया । प्रत्यक्षो यत्र सम्बन्धो विशेषेण प्रतीयते । तुल्यप्रमाणको हि विशेषो बाघको भवति न दुर्बलप्रमाणकः', एवं पू० ११२० ) ; स्मृतिचन्द्रिका ( व्यव०, पृ० १४२, २६६, ३८१) एवं परा० मा० (१, पु० २३३ ) |
(१।४।२५ ) |
सामर्थ्याधिकरण — जै० सारस्वतौ भवतः - जै०
(५।१।७४ ) ; देखिए स्मृतिच० ( व्य०, पृ० २६७ ) : सुबोधिनी ( पितरौ,
पृ० ७२ ), पृ० १८३ ) ।
सार्थक्यन्याय - जै० (१1२1१ एवं ७ ) ; शबर (जै० २२२२६ एवं ३|१|१८, आनर्थक्यात्तदंगेषु ) । अनर्थक का अर्थ है 'अर्थहीन' या 'उद्देश्यहीन' ।
सुवर्णधारणन्याय— जै० ( ३ | ४ | २० - २४ ) । तै० ब्रा० (२|२|४| ६ ) में एक वचन है जो किसी विशिष्ट यज्ञ से सम्बन्धित नहीं है, यथा-' - 'सुवर्णं हिरण्यं धार्यम्' (चमकीला सोना पहनना चाहिए ) । यह पुरुषधर्म है न कि सर्वप्रकरणधर्म । मिता० ( याज्ञ० २।१३५ - १३६ ) | यह सभी सम्पत्ति यज्ञ के लिए है' नामक मान्यता के विरोध में एक तर्क है ।
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