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धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मीमांसासिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम
२२१ रथकाराधिकरणन्याय-० (६।१।४४-५०); मौ० न्या० प्र० (पृ० ११३) एवं परा० मा० (१११, पृ० ४८)।
रात्रिसत्रन्याय-जै० (४।३।१७-१६); दत्त० मी० (पृ. २०७); मामती (शांकरभाष्य, वे० सू० १।१।४)।
रूढियोगमपहरति-इसका अर्थ यह है कि व्युत्पत्तिमूलक अर्थ की अपेक्षा रूढिगत अर्थ को अधिक मान्यता देनी चाहिए, यथा “रय कार' (जै० ६।१।४४) के विषय में। देखिए परा० मा० (१११, पृ० ३००)। इसके विरोध में एक दूसरा न्याय ग्रहण किया जाता है, यथा-'योगसम्भवे परिभाषाया अयुक्तत्वात्', जो मिता० (याज्ञ. २।१४३) द्वारा स्त्रीधन के अर्थ के विषय में प्रयुक्त किया गया है। मी० न्या० प्र० (पृ० ११२-११३) ।
रेवत्यधिकरणन्याय-जै० (२।२।२७) एवं मी० न्या० प्र० (पृ० ४०-४२) । लक्षणा ह्यदृष्टकल्पनाया ज्यायसी-देखिए शबर (जै० १११, पृ० ७ एवं ११४।२, पृ० ३२४) ।
व!न्याय-जै० (३।८।२५-२७) । दर्शपूर्ण मास में अध्वर्यु पुरोहित पाठ करता है-'ममाग्ने वर्ची विहवेध्वस्तु' (मै० सं० ११४१५)। फल यजमान को मिलता है न कि अध्वर्यु को, क्योंकि अध्वर्यु दक्षिणा पर कार्य करता है।
वाजपेयन्याय-जै० (११४१६-८)। 'वाजपेयेन स्वाराज्यकामो यजेत' नामक वाक्य में 'वाजपेय' एक याग का नाम है, वह किसी यज्ञ के विषय में कुछ और नहीं बताता। मिता० (याज्ञ० ११८१) ।
वानीन्याय--जै० (३।१।२३) । तै० सं० (२१५।२।५) में ऐसा आया है कि वाघ्नी मन्त्रों का वाचन पूर्णमासी पर तथा वृधन्वती मन्त्रों का अमावास्या पर होना चाहिए। ये दोनों उन यज्ञों के लिए व्यवस्थित हैं जिनमें दो अनुवाक्याओं के वाचन की आवश्यकता होती है। दर्श या पौर्णमास कृत्य पर केवल एक अनुवाक्या होती है, अत: ये दोनों दर्शपूर्णमास में प्रयुक्त नहीं हो सकते। किन्तु दो अनुवाक्याओं का प्रयोग आज्यभागों में (जो दर्शपूर्णमास की सहायक आहुतियाँ होते हैं), हुआ है, ऐसा प्रसिद्ध है। अतः 'वात्रघ्नी' एवं 'वृधन्वती' अनुवाक्याएँ केवल आज्यभागों से सम्बन्धित हैं न कि प्रमुख कृत्य से ।
विधिवग्निगदाधिकरण--देखिए दायभाग (याज्ञ० २।३०, स्थावरं द्विपदं...न विक्रयः), जिसने टिप्पणी की है-'कर्तव्यपदमवश्यमत्राध्याहार्यम'। यह एक विधि है, यद्यपि उत्साह व्यक्त करने के लिए कोई अन्य शब्द नहीं है।
विश्वजिन्याय-जै० (४।३।१५-१६)। जहां किसी यज्ञ के लिए कोई फल स्पष्ट रूप से व्यवस्थित न हो वहाँ 'स्वर्ग' को फल समझना चाहिए। यह विश्वजित् यज्ञ के लिए है, जिसमें यज्ञकत अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति का दान कर देता है । मेधा० (मनु० २।२); परा० मा० (१।१, पृ० १४८); एका० तत्त्व (१० २३) ।
विधौ लक्षणा अन्याय्या--देखिए शबर (जै० १।२।२६ एवं ४१४११६) । देखिए ऊपर 'न विधौ परः शब्दार्थः ।' मलमासतत्त्व (पृ० ७६०)।
वश्वदेवन्याय--जै० (१।४।१३-१६)। चातुर्मास्यों के चार पर्यों में वैश्वदेव प्रथम पर्व है। यह नामधेय है न कि गुणविधि । दत्त० मी० (पृ० २३६) ने इसका प्रयोग किया है।
वैश्वानराधिकरणन्याय-देखिए 'जातेष्टिन्याय' । शाखान्तरन्याय-० (२।४।८-३३) । यह आगे लिखित 'सर्वशाखाप्रत्ययन्याय' ही है। श्रुतिलक्षणाविशये च श्रुतिया॑य्या म लक्षणा-वाबर (जै० ४।१।२३, ४।११४६ एवं ४।२।३०) ।
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