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धर्मशास्त्र एवं सांस्य
२३३ 'सांख्य' शब्द का उल्लेख श्वेताश्व० उप० में हुआ है, कठ एवं मुण्डक के कुछ सिद्धान्त सांख्य सिद्धान्त से मिलते हैं तथा श्वेताश्वतरोपनिषद् ने बहुत से ऐसे शब्द प्रयुक्त किये हैं जो सांख्य-सम्बन्धी ग्रथों में आये हैं, अतः प्रश्न उठ खड़ा होता है कि उपनिषदों से सांख्य का क्या सम्बन्ध है ? इस विषय में तीन दृष्टिकोण हैं--(१) उपनिषद् एवं सांख्य के विचार समानान्तर रूप में विकसित हुए, (२) सांख्य ने उपनिषदों के विचारों को बीज रूप में ग्रहण कर उन्हें विस्तृत किया, (३) कुछ उपनिषदों ने सांख्य से उधार लिया । स्थानाभाव से इन प्रश्नों का विवेचन यहाँ नहीं किया जायगा। प्रस्तुत लेखक की धारणा है कि सांख्य ने उपनिषदों के विचारों पर अपने को आधारित किया है। प्राचीन उपनिषदें, यथा बृहदारण्यकोपनिषद्, छान्दोग्योपनिषद् आदि सांख्यसिद्धान्तों एवं प्रणाली के कुछ भी अंश प्रदर्शित नहीं करतीं, किन्तु कठ, मुण्डक, श्वेताश्वतर, प्रश्न (जो छान्दोग्य, बृहदारण्यक से अपेक्षाकृत पश्चात्कालीन हैं) में सांख्य के संकेत मिल जाते हैं । शुद्ध रूप से केवल सांख्यसिद्धान्त-सम्बन्धी ग्रन्थ या लेखक ईसा से कुछ शतियों पूर्व भी नहीं पाये जाते, जब कि प्रमुख उपनिषदें (श्वेताश्वतर को लेकर लगभग बारह) ई० पू० ३०० के उपरान्त नहीं रखी जा सकतीं। वे० सू० (१।४।८ एवं २।३।२२) ने श्वेताश्वतरोपनिषद् को भी 'श्रुति' के अन्तर्गत रखा है। इन सब बातों से स्पष्ट है कि उपनिषदें सांख्य से अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन हैं । गार्बे ('डाई सांख्य फिलॉसफी, पृ० ३) ने कहा है कि अपने लम्बे इतिहास में सांख्य ने अपने मौलिक सिद्धान्तों में कोई परिवर्तन या परिष्कार नहीं देखा। किन्तु जैकोबी इससे सहमत नहीं हैं, उनका कथन है कि सांख्य का उद्भव समान सांस्कृतिक एवं दार्शनिक भाण्डार से हुआ । ओल्डेनबर्ग का कथन है कि सांख्य का उद्गम कठोपनिषद् एवं श्वेताश्वतरोपनिषद् में पाया जाता है और उनकी यह भी धारणा है कि मौलिक सांख्य एक स्वतन्त्र विकास है (डाई ले हे डर उपनिषदेन अण्ड डाई अंफ्रांजे डेस बुद्धिज्मस', १६१५, प० २०६)। सांख्य एवं योग कौटिल्य को भी ज्ञात थे (सांख्यं योगो लोकायतं चेत्यान्वीक्षिकी, अर्थशास्त्र, १।२, पृ०६) । अतः हम कह सकते हैं कि दार्शनिक सम्प्रदाय के रूप में सांख्य का आरम्भ कम-से-कम ईसा पूर्व चौथी शती के पूर्व हो चुका था।
सांख्य सिद्धान्त के उद्गम के विषय में जानकारी के लिए अब हम संस्कृत के ग्रन्थों का अवलोकन करेंगे। सर्वप्रथम हम महाभारत को उठायेंगे।
___ शान्तिपर्व १६ के बहुत से वचनों में सांख्य के कुछ सिद्धान्त, पारिभाषिक शब्द एवं व्यक्ति दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रकार के बहुत से स्थल हैं, अत: हम कुछ ही दृष्टान्त उपस्थित करेंगे । २०३३ अध्याय में एक चतुर शिष्य एवं उसके आचार्य की बातचीत पायी जाती है। आरम्भ इस बात से होता है कि वासदेव ही यह सब हैं (वासुदेवः सर्वमिदम् ) । इसके उपरान्त बात बढ़ती है-'जिस प्रकार एक दीपक से सहस्रों दीपक अग्रसरित हो सकते हैं, उसी प्रकार प्रकृति असंख्य वस्तुएँ उत्पन्न करती है, किन्तु ऐसा करने से वह (आकार में ) कम नहीं हो जाती; अव्यक्त (प्रकृति) की क्रिया से बुद्धि स्फुरित होती है और (बुद्धि से) अहंकार की उद्भूति होती है, और अहंकार से आकाश निकलता है, जिससे वायु उटता है और तब तेज, जल एवं पथिवी में प्रत्येक की इसके पूर्ववर्ती से उत्पत्ति होती है। ये आठ मूल प्रकृतियाँ हैं, और सम्पूर्ण विश्व इनमें केन्द्रित
१६. इस प्रकरण में शान्तिपर्व के वचन हम भण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टीच्यूट द्वारा प्रकाशित महाभारत से उब्त करेंगे। किन्तु अन्य पर्वो के वचन चित्रशाला प्रेस के संस्करण से लिये जायेंगे ।
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