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धर्मशास्त्र एवं सांख्य
२२६ अभी अज्ञात एवं रहस्यात्मक है । सांख्य सिद्धान्त के अन्तर्गत पुरुष या प्रकृति या दोनों कोई धार्मिक उद्देश्य नहीं उपस्थित करते, अर्थात् उनके पीछे कोई धार्मिक पहलू नहीं है। पुरुष कैसे प्रकृति के चंगुल में फँस जाता है, इस विषय में कोई निश्चित एवं विश्वसनीय उत्तर नहीं मिल पाता। सांख्य सिद्धान्त केवल इतना ही बताता है कि विवेकहीनता के कारण पुरुष किसी प्रकार चंगुल में फँस जाता है । वेदान्तसूत्र ने प्रधान को ११२।१६ में स्मार्त कहा है और १।४।१ में उसे आनुमानिक कहा है । प्रकृति से महान् (बुद्धि, चेतना) की उत्पत्ति होती है, जिससे अहंकार उत्पन्न हो जाता है, अहंकार से एक ओर पाँच तन्मात्राओं (सूक्ष्म तत्त्वों, यथा-- शब्द, स्पर्श, गन्ध, रस एवं रूप) एवं दूसरी ओर मन एवं दस इन्द्रियों (ज्ञानेन्द्रियों) की उत्पत्ति होती है । पाँच तन्मात्राओं से पाँच महान् तत्त्वों (पृथिवी, जल, तेजस्, वायु एवं आकाश) की उत्पत्ति होती है। ये ही २४ तत्त्व हैं और पुरुष २५वाँ तत्त्व है । प्रधान पुरुष से भिन्न है, वह पुरुष के उद्देश्य की पूर्ति करता है (पुरुष निष्क्रिय एवं साक्षी होता है); पुरुष प्रकृति के मूल तत्त्वों से भिन्न है, वह भोक्ता है (कर्ता नहीं)। सांख्य ईश्वर की अपेक्षा नहीं करता ।' प्रकृति एवं पुरुष इसीलिए एक साथ होते हैं कि पुरुष उसकी क्रिया देखे ; यह उसी प्रकार है जैसा कि हम एक अंधे एवं लँगड़े को पाते हैं (अंधा व्यक्ति लँगड़े को अपने कंधे पर ले जा सकता है, लँगड़ा व्यक्ति मार्ग दिखाता चलता है और इस प्रकार दोनों समन्वित प्रयत्न से अपने लक्ष्य तक पहुँच जाते हैं। जब पुरुष अपने एवं गणों (जो प्रकृति में निहित होते हैं) के बीच का अन्तर जान लेता है तो उसे मुक्ति मिल जाती है ।'° सांख्य एवं योग दोनों इस बाह्य संसार को वास्तविक मानते हैं । दोनों ने आत्मा की अनेकता (पुरषों) की कल्पना की है, दोनों के अनुसार ये आत्मा नित्य एवं
७. वे० सू० (१।४।११) में बृहदारण्यकोपनिषद् (४।४।१७) के 'यस्मिन् पञ्च पञ्चजना' को उद्धृत करने के उपरान्त पूर्वपक्ष को इस प्रकार रखा गया है--तथा पञ्चविंशतिसंख्यया यावन्तः संख्यया आकांक्ष्यन्ते तावन्त्येव च तत्त्वानि सांख्यः संख्यायन्ते--'मूलप्रकृतिरविकृतिमहदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकश्च विकारो न प्रकृति विकृतिः पुरुषः॥' यह अन्तिम श्लोक सां० का० ३ है।
८. सांख्य-प्रवचनसूत्र (११६२-६३) में आया है 'ईश्वरासिद्धः, मुक्तबद्धयोरन्यतराभावान्न तत्सिद्धिः।'
६. पुरुषस्य दर्शनार्थ कवल्याय तथा प्रधानस्य । पंग्वन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः ॥ सां० का. (२१)। युक्तिदीपिका (पृ.० २, श्लोक १०-१२) एवं अपनी टीका सांख्यतत्त्वकौमुदी में उद्धृत राजवातिक के अनुसार षष्टितन्त्र में जो ६० विषय विवेचित हैं वे ये हैं-प्रधानास्तित्वमेकत्वमर्थवत्त्वमथान्यता। पारायं च तथाऽनक्यं वियोगो योग एव च ॥ शेषवृत्तिरकर्तृत्वं मौलिकार्थाः स्मृता दश । विपर्ययः पञ्चविधस्तथोक्ता नव तुष्टयः॥ करणानामसामर्थ्य मष्टाविंशतिधा मतम् । इति षष्टिः पदार्थानामष्टभिः सह सिद्धिभिः॥ सांख्यतत्त्वकौमुदी (गंगानाथ झा द्वारा सम्पादित, बम्बई, १८६६) । देखिए सां० का० (४७) जहाँ 'प्रधानास्ति०...' आदि में वर्णित १० के अतिरिक्त ५० विषयों का उल्लेख है। अहिर्बुध्न्यसंहिता (१२।२०-२६) ने सांख्यतन्त्र के ६० विषयों का उल्लेख किया है, किन्तु उनमें एवं वाचस्पति द्वारा उद्धत राजवातिक में उल्लिखित विषयों में अन्तर है।
१०. धर्मेण गमनमूर्ध्वं गमनमधस्ताद् भवत्यधर्मेण । ज्ञानेन चापवगों विपर्ययादिष्यते बन्धः॥ सां० का. (४४); मिलाइए गीता (१४।१८) 'ऊवं गच्छन्ति...', शंकराचार्य (वे० सू० १।४।४) ने कहा है-'नेयत्वेन च सांस्यः प्रधानं स्मर्यते गुणपुरुषान्तरमानाकैवल्यमिति बद्भिः ।'
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