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धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मौमासासिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम
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सूक्तवाक्यन्याय-देखिए जै० (३।२।१६-१६ और 'प्रस्तरप्रहरणन्याय', जहाँ सूक्तवाक एवं प्रस्सर का अर्थ दिया हुआ है । इन सूत्रों में यह स्थापित किया गया है कि सम्पूर्ण सूक्तवाक पौर्णमास-इष्टि एवं दर्श-इष्टि में नहीं कहा जाना चाहिए, किन्तु केवल उतना ही जो इन दोनों इष्टियों के देवों से क्रम से सम्बन्धित है।
स्थालीयुलाकन्याय-'स्थालीपुलाक' शब्द जै० (७४।१२) में आया है। शबर (जै० ८।१।११) एवं तन्त्रवा० (ज० ३।५।१६, पृ० ६६८) । महाभाष्य को यह ज्ञात था, (यथा वार्तिक १५, पा० ७।२।१) । शांकरभाष्य (वे० स० २।१।३४ एवं ३।३।५३) ।
स्वर्गकामाधिकरण-जै० (६।१।१-३) । हेतुमन्निगदाधिकरण-जै० (१।२।२६-३०)। विश्वरूप (याज्ञ० ३।२६३); मलमासतत्त्व (पृ० ७६०)। होलाकाधिकरण-जैमिनि (१।३।१५-२३) ।
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