________________
२१४
पर्मशास्त्र का इतिहास कपालन्याय या कपालाधिकरणन्याय-जै० (१०।५।१), मलमासतत्त्व (पृ० ७७६) में इसकी व्याख्या की गयी है।
कपिञ्जलन्याय-जै० (११।१।३८-४६); देखिए तन्त्रवा० (पृ० ४१५, जै० २।१।१२ पर, एवं पृ० १००४, जै० ३।५।२६ पर, जहाँ ऐसा आया है-'कपिजलवच्च त्रीण्येव बहुत्वश्रुतिरवस्थाप्यते'); परा० मा० (१।२, पृ० २८१)।
___ कम्बलनिर्णेजनन्याय-शबर (ज० २।२।२५, पृ० ५४५, निर्णेजनं ह्य भयं करोति कम्बलशुद्धि पादयोश्च निर्मलताम्)।
कर्मभूयस्त्वात्फलभूयस्त्वम्-देखिए स्मृतिच० (२, पृ० २६४) एवं परा० मा० (१३१, पृ० २५, कर्माधिक्यात्फलाधिक्यमिति न्यायसमाश्रयात्) ।
___ कलजन्याय-शबर (जै० ६।२।१६-२० ने 'न कलंजं भक्षयितव्यम्' पर कहा है कि यह स्पष्ट रूप से प्रतिषेध है न कि पर्युदास । देखिए मी० न्या० प्र० (पृ० २४८-२४६) एवं तिथितत्त्व (पृ० ६)।
कांस्यभोजिन्याय--यह पू० मी० सू० (१२।२।३४) में आया है (अधिकश्च गुणः साधारणेऽविरोधात्कांस्यमोजिवदमुख्येऽपि); शबर ने यों व्याख्या की है--'शिष्यस्य कांस्यपात्रभोजित्वनियमः, उपाध्यायस्य न नियमः । यदि तयोरेकस्मिन्पात्रे भोजनमापद्यते, अमुख्यस्यापि शिष्यस्य धर्मो नियम्येत मा भूद्धर्मलोप इति।'
काकदन्तपरीक्षान्याय-देखिए टुप्टीका (पृ० १३८८, जै० ६।२।१)। कुछ क्रियाएँ, यथा-गदहे के चर्म के बालों या कौए के दाँतों को गिनना निरर्थक एवं अनुपयोगी है।
काकाक्षिगोलकन्याय-देखिए तन्त्रवा० (पृ० १६८, ज० १।३७); मेधातिथि (मनु ८।१), व्य० प्र० (पृ० ५३४, व्य० म० (पृ० ६५) ।
काण्डानुसमय-शबर (जै० ५।२।३, पृ० १३१०-११)। और देखिए आगे ‘पदार्थानुसमय' । कारणानुविधायिकार्यन्याय--तन्त्रवा० (पृ० २४५, जै० ११३।४६)। कारण के गुण कार्य में पाये जाते हैं। कुण्डपायिनामयनन्याय-जै० (७।३।१-४)। देखिए आप० श्री० (२३।१०।६)।।
कुशकाशावलम्बनन्याय-तन्त्रवा० (पृ० २६८ , जै० १।३।२४) । 'कुश' दर्भ है और काश घास वाला पौधा है जिसके फूल श्वेत होते हैं । ये इतने दुर्बल होते हैं कि किसी को उनका अवलम्बन या सहारा नहीं प्राप्त हो सकता। अतः रूपक रूप में इसका अर्थ है 'दुर्बल या व्यर्थ तों का सहारा लेना।' देखिए व्यव० प्र० (पृ० ५२७)।
कृत्वाचिन्तान्याय--विचार करने के लिए केवल अनुमानजन्य बात का सहारा लेना । यह शबरभाष्य में बहुधा आया है, यथा--जै० (६।८।४३, पृ० १५२२, कृत्वा चिन्ताया: प्रयोजनं वक्तव्यम्'); और देखिए वही, ११।३।१६, पृ० २१७५, १२।२।११, पृ० २२४२; देखिए तन्त्रवा० (पृ० २८७, जै० १।३।२७, एवं पृ० ८६०, जै० ३।४।१--यस्तु भाष्यकारेणोपन्यासः कृतः स कृत्वाचिन्तान्यायेन)।
कैमुतिकन्याय-यह 'किमत' से निष्पन्न हुआ है और प्रयुक्त हुआ है, यथा कादम्बरी में 'गर्भेश्वरत्व... शक्तित्वं चेति महतीयं खल्वनर्थपरम्परा, सर्वाविनयानामेवैकमप्येषामायतनं किमुत समवायः ।' देखिए व्य० म० (पृ० २४१) एवं प्रस्तुत लेखक की टिप्पणी व्य० म० (पृ० ४१६) ।
सामेष्टिन्याय-जै० (६।४।१७-२०) । यदि दर्शपूर्णमास में अर्पित होने वाला पुरोडाश थोड़ा जल जाय तब न जले हुए अंश से कृत्य का सम्पादन करना चाहिए, किन्तु जब सम्पूर्ण पुरोडाश जल जाय तो प्रायश्चित्त की आवश्यकता होती है। देखिए मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२४३)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org