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धर्मशास्त्र का इतिहास
अपच्छेदन्याय—-शबर (जै० ६।५।४६ - ५०) ने इसकी परिभाषा की है--' संयुक्तस्य हि पृथग्भावोऽपच्छेदः' एवं व्य० प्र० ( पृ० ५३५) । यह शब्द जै० (६।५।५६ ) में आया है।
अप्राप्ते शास्त्रमर्थवत् - यह जै० (६।२।१८) का अंश है और इसका अर्थ है 'विधिना तावत्तदेव विधेयं यत् प्रकारान्तरेणाप्राप्तम् ।' मी० न्या० प्र० ( पृ० २२२ ) ।
अभिमर्शनन्याय-- जै० ( ३।७।८ - १० ) ; व्यव० प्र० ( पृ० ५३५) ।
अभ्यासाधिकरण --- जै० (२२/२), जहाँ तै० सं० (२।६।१।१ - २ ) में पाये गये पाँच प्रयाजों की ओर संकेत है । देखिए इस महाग्रन्थ का मूल खण्ड २, पृ० १०५७ । अभ्युदितेष्टिन्याय— जै० (६।५।१-६ ) ; मिता० ( याज्ञ० एवं उस पर टिप्पणी, पृ० २७७ - २७६) तथा मामती ( वे० सू० अरुणान्याय या अरुणाधिकरण -- जै० (३|१|१२), तै० सं० देखिए अपरार्क ( पृ० १०३०, याज्ञ० ३।२०५), मद० पा० ( पृ० अर्को चेन्मधु विन्देत किमर्थं पर्वतं व्रजेत्--5 -- शबर ( जै० ११२1४ ) ने उत्तरार्ध को इस प्रकार उद्धृत किया है—'इष्टस्यार्थस्य संसिद्धो को विद्वान् यत्नमाचरेत् ।' उन्होंने अर्क को एक पौधा माना है; और देखिए तन्त्रवार्तिक ( पृ० १११), विश्वरूप (याज्ञ० ३।२४३, प्रथम अर्धाली ); शंकर ( वे० सू० ३ | ४ | ३ ) ने पूर्वार्ध भाग
को न्याय माना है ।
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३।२५३), व्यव० म० ( पृ० १५१-१५२ ३।३।७ ) ।
(६|१| ६ | ७ - अरुणया पिंगाक्ष्या क्रीणाति ) ; ८८-८६) ।
अर्धकुक्कुटोपाक --- यह 'अर्धजरतीय' ही है । देखिए तन्त्रवा० ( पृ० ७२० जे० ३।१।१३ ) । इसका अर्थं यों है--' यह पूर्ण विरोधाभास है कि कोई आधी मुर्गी को भोजन के लिए पकाये तथा आधी को अण्डा देने के लिए रख छोड़े ।'
अर्धजरतीय - देखिए महाभाष्य ( वार्तिक ५, पाणिनि ४।१०७८, --- अर्ध जरत्या कामयतेऽर्धं नेति), शांकरभाष्य ( वे० सू० ११२१८ - - यथाशास्त्रं तर्हि शास्त्रीयोर्थः प्रतिपत्तव्यो न तत्रार्धजरतीयं लभ्यम् ), परा० मा० (२1१; पृ० ७०२ ) ।
अघवैशस -- अर्धजरतीयन्याय से मिलता-जुलता है। देखिए तन्त्रवा० ( पृ० १७०, १७४, १८०, २६१ ) ; शांकरभाष्य (वे० सू० ३।३।१८ ), वैशस का अर्थ है 'नाश, टुकड़ों में विभाजित कर देना, संघर्ष या विरोध ।' कुमारसम्भव ( ४ | ३१ ) में इसका शाब्दिक अर्थ है
अर्धमन्तर्वेदि मिनोत्यर्थं बहिर्वेदि - देखिए शबर ( जै० ३।७।१४ ), तन्त्रवा० ( पृ० १०८३ - ८४ ) ; व्य० म० द्वारा उद्धृत ( पृ० ११५, १४६ ) ।
अवयवप्रसिद्धेः समुदायप्रसिद्धिर्बलीयसी- - शबर ( जै० ६।७।२२), जहाँ अश्वकर्ण ( एक पेड़ का नाम) का उदाहरण दिया हुआ है, जिसकी पत्तियाँ घोड़े के कानों की भाँति होती हैं, तन्त्रवा० (जै० ११४|११ ) । अवेष्टयधिकरणन्याय - जै० (२।३।३ एवं ११ |४|१० ) । शांकरभाष्य ( वे० सू० ३ | ३|५० ) । अश्वाभिधानीन्याय - ' इमामगृभ्णन् रशनामृतस्ये त्यश्वाभिधानीमादत्ते - ० सं० (५।१।२1१ ) एवं तै० सं० (४) १ |२| १ ) का मन्त्र ; मी० न्या० प्र० ( पृ० ८० ) में व्याख्यायित; अर्थसंग्रह ( पृ० ५ ) ।
अश्वकर्णन्याय— टुप्टीका (जै० ४ । ४ । १, पृ० १२७० ) । यह इसलिए कहा गया है कि राजसूय में पराम्परानुगत अर्थ ही लिया जाना चाहिए न कि शाब्दिक ।
आकाशमुष्टिहननन्याय-- तन्त्रवा० ( जै० १|३|१२, पृ० २३६, 'यस्तन्तूननुपादाय तुरीमात्रपरिग्रहात् । पटं कतु समीहेत स हन्याद् व्योम मुष्टिभि: ॥', शांकरभाष्य ( वे० सू० २।१।१८ ) ।
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