________________
अध्याय ३० का परिशिष्ट
यदि हम पूर्वमीमांसासूत्र के बहु- प्रचलित न्यायों को एक स्थान पर संगृहीत कर दें तो पूर्वमीमांसासूत्र एवं धर्मशास्त्र के पाठकों को सुविधा प्राप्त होगी । हम यहाँ पू० मी० सू०, शबर, कुमारिल, पार्थ सारथि, पतञ्जलि के महाभाष्य, शंकराचार्य के वेदान्त सूत्रभाष्य, शंकराचार्य पर भामती आदि द्वारा दिये गये संकेतों एवं निर्देशों का सहारा लेंगे । विशेषतः कुमारिल ने तन्त्रवार्तिक में न्यायों का प्रभूत उपयोग किया है, यथा-पृ० ४१५ (जैमिनि २।११८ ) पर उन्होंने पाँच विभिन्न न्यायों का प्रयोग किया है । इस महाग्रन्थ के कतिपय खण्डों में न्यायों की ओर संकेत किया गया है । यहाँ पर उल्लिखित न्यायों में बहुत-से कर्नल जैकब द्वारा प्रकाशित ‘लौकिकन्यायाञ्जलि' (तीन भागों में) में पाये जाते हैं । कहीं-कहीं जैकब की व्याख्याएँ शुद्ध एवं सन्तोष - जनक नहीं हैं, किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने आज से लगभग आधी शताब्दी पूर्व यह सब लिखा था ।
अग्निहोत्रन्याय --- जै० (६ । २ । २३ - २६ ) ; देखिए शंकर, वे० सू० (
अंगगुणविरोधन्याय - जै० (१२।२।२५ ) ; देखिए शबर एवं मी० न्या० प्र० ( पृ० १६६ ) | अंगभूयस्त्वे फलभूयस्त्वम् — शबर ( जै० १०।६।६२ एवं ११।१।१५ ) ।
अंगांगिन्याय - जै० (२।२।३-८) ।
३ | ४ | ३२ ) पर |
अंगानां प्रधानोपकाररूपककार्यार्थत्वम् — जै० ( ११।१।५-१०)
अणुरपि विशेषोऽध्यवसायकरः - देखिए व्य० प्र० ( पृ० ५२५) एवं व्य० म० ( पृ० १४३ ) | अधिकारन्याय - जै० (६।१।१ - ३ एवं ४ - ५, शास्त्र केवल मानवों के लिए है ) । और देखिए वे० सू० (१।३।२६-३३), जहाँ शंकर (१।३।२६ पर) ने कहा है कि शबर के शब्दों का ब्रह्मविद्या में कोई उपयोग नहीं है । 'अत्राहुः । स एव | शब्दस्यार्थो यः प्रकारान्तरेण न (१।३।१७ ) पर ( प्रसिद्धेश्च ) |
अनन्यलभ्यः शब्दार्थः — मी० न्या० प्र० ( पृ० ६२ ) : लभ्यते । अनन्य... थं इति न्यायात् । देखिए भामती वे० सू० अनुषंगन्याय - जै० (२|१|४८ ) ; देखिए स्मृतिच० अन्तरंगबहिरंगयोरन्तरंग बलीयः - देखिए शबर (जै० का कथन है- 'असिद्धं बहिरंगमन्तरंगे ।'
अन्धपरम्परान्याय— तन्त्रवार्तिक ( ० १।३।२७, पृ० २८२ एवं ३ | ३|१४, पृ० ८५८), मेघातिथि ( मनु १०१५ ), शंकर (वे० सू० २।२।३० ) |
अन्यायश्चानेकार्थत्वम् - शबर (जै० २।१।१२, पृ० ४१० ५।४।१४, पृ० १३४०, ६।१।२२, पृ० १३६६, ७।३।३,पृ० १५५० ) ; तन्त्रवा० (२|४|१०, पृ० ६३६), भामती ( वे० सू० १|३|१७ ) ; देखिए मदनपा० ( पृ० ३६६ ) ।
Jain Education International
(श्राद्ध, पृ० ३८१ ) एवं व्य० म० ( पृ० १४७ ) । १२/२/२७ ) ; महाभाष्य ( पा० १|१|४, १/१/५ )
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org