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धर्मशास्त्र का इतिहास
जन्म में दुष्कृत्य किये हों तो उसे उन पापों के प्रभावों से निपटना पड़ेगा और जब तक वह पापप्रभावों में रहता है तब तक यज्ञों से उत्पन्न फल स्थगित रहते हैं । किन्तु जब पापों के प्रभाव बहुत कम रह जाते हैं तो व्यक्ति इसी जीवन में काम्य कृत्यों के फल प्राप्त करने लगता है । वेद-वचन केवल इतना कहते हैं कि कृत्य सम्पादन का फल अवश्य मिलता है, किन्तु वे यह नहीं कहते कि फल ( कृत्य सम्पादन के उपरान्त) तुरंत मिल जाते हैं । अतः ( फल प्राप्ति के काल के विषय में ) कोई निश्चितता नहीं है । किन्तु स्वर्ग का उपभोग ( इसी जीवन में सम्पादित कृत्यों के फल के रूप में) परलोक में ही होता है । स्वर्ग निरतिशय प्रीति ( अर्थात् आनन्द ) है और कर्म के अनुरूप ही उसकी प्राप्ति होती है, किन्तु इसका उपभोग इस जन्म में नहीं हो सकता, क्योंकि मनुष्य इस लोक में प्रत्येक क्षण में सुख एवं दुख का अनुभव करता रहता है । प्रत्येक सुख ज्योतिष्टोम से ही नहीं प्राप्त होता और प्रत्येक व्यक्ति ज्योतिष्टोम करता भी नहीं । किन्तु कुछ सुख मनुष्य को प्राप्त होता ही है। अतः यह स्वाभाविक है । निरतिशय सुख के अनुभव के लिए दूसरे शरीर की कल्पना करनी ही है, क्योंकि कोई अन्य तर्कसंगत व्याख्या नहीं मिल पाती। वह निरतिशय सुख (प्रीति) व्यक्ति के पास तब तक नहीं आती जब तक कि वह जीता रहता है, अतः स्वर्ग का उपभोग दूसरे जीवन में ही होता है । "
(६) मोक्ष : पू० मी० सू०, शबर एवं प्रभाकर ने मोक्ष के विषय में नहीं लिखा है । कुमारिल एवं प्रकरण - पञ्चिका ने इस पर विचार किया है। दोनों में आया है कि मोक्ष की प्राप्ति हो जाने पर पुनः शरीर धारण नहीं होता । श्लोकवार्तिक में आया है— 'जो मोक्ष प्राप्त करना चाहता है उसे निषिद्ध कर्म नहीं करना चाहिए और न काय (यथा सन्तान, घन आदि के लिए किया जाने वाला) कर्म ही करना चाहिए, उसे नित्य ( यथा अग्निहोत्र ) एवं नैमित्तिक ( स्नान, जप, दान जो विशेष पर्व, ग्रहण आदि में किया जाता है) कर्म करन चाहिए जिससे उन पापों से छुटकारा हो जो इन कर्मों के न करने से एकत्र होते है; यदि व्यक्ति नित्य एवं नैमित्तिक कर्मों के फलों की कामना नहीं करता तो वे उसे प्राप्त नहीं होंगे, क्योंकि ऐसे फल केवल उन्हीं को प्राप्त होते हैं जो उन्हें चाहते हैं । पूर्व जीवन के कर्मों के फलों का निवारण उस जन्म में भोगने से होता है जिसमें मोक्ष की खोज की जाती है । यह मत शंकराचार्य (वे० सू० ४ | ३ | १४ ) की धारणा से मेल नहीं खाता, क्योंकि शंकराचार्य ने ऐसा कहा है कि बिना आत्म-ज्ञान के मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती ( श्वेत० उप० ३।८ ) । उसी सूत्र के अपने भाष्य
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६. पुत्रादीनि कामयमानस्योपायो विधीयते । उपाये च कृते नियतमुपेयेन भवितव्यम् । तदा पूर्वजन्मन्यशुभं कृतम्। तच्चानुभाव्यं तस्मात्पूर्वजन्मकृतमनुभूयते । तत्र यदि जन्मान्तरकृतोऽधर्मः प्रक्षीणस्तत इहैव जन्मनि फलम् । अथाक्षीणस्ततस्तेन वद्धसाधकं फलमुत्कृष्यते । फलं भवतीत्येतावति विधिशब्दोऽस्ति न त्वनन्तरत्वे तस्मादनियमः । स्वर्गस्तु जन्मान्तर एव । स हि निरतिशया प्रीतिः कर्मानुरूपा चेति न शक्येह जन्मन्यनुभवितुम् । यतोऽस्मिँल्लोके क्षणे क्षण सुखदुःखे अनुभवन्ति । न च प्रोतिमात्रं ज्योतिष्टोमफलम् । प्राणिमात्रस्य च सा विद्यते न च प्राणिमात्रं ज्योतिष्टोमं करोति। तस्मात्स्वाभाविक्यसौ । देहान्तरं तु निरतिशयप्रीत्यनुभवनायान्यथानुपपत्त्या कल्प्यते । तच्चामृतस्य न भवतीत्यतो जन्मान्तरे स्वर्गः । टुप्टोका (४) ३२८) | यह द्रष्टव्य है कि यहाँ पर प्रोति ( सुख-क्षण) एवं निरतिशयत्रीति में अन्तर दर्शाया गया है। इप्टोका (६।१।१) में आया है कि सिद्धान्त मत के अनुसार स्वर्ग का अर्थ है। 'प्रीति' किन्तु पूर्वपक्ष में आया है कि स्वर्ग उन वस्तुओं के साधनों का द्योतन करता है जिनसे प्रीति (या सुख) उत्पन्न होती है, किन्तु दोनों ऐसा नहीं कहते कि स्वर्ग कोई स्थान है, 'एकस्य प्रीतिः स्वर्गशब्दवाच्या अपरस्य प्रीतिमद् द्रव्यम् । विशिष्टो देश उभयोरप्यवाच्यः टप्टीका (पू० मी० सू०, ६।१।१) ।
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