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धर्मशास्त्र का इतिहास यह है कि जब मूल मन्त्र के शब्द परिष्कृत (विकृति) याग तक नहीं बढ़ाये जाते तो ऊह का आश्रय लिया जाता है, अन्यथा नहीं। किन्तु शबर ने टिप्पणी की है कि याज्ञिक लोग ऊह का सम्पादन कर लेते हैं (उपयुक्त परिवर्तनों के साथ अपने अनुकूल बना लेते हैं), अर्थात् वे ऐसा पाठ करते हैं-'अग्ने आगच्छ रोहिताश्व बृहद्भानो...।' यह ज्ञातव्य है कि पू० मी० सू० (२।१।३४) एवं शबर के अनुसार ऊहित (अनुकूलित) मन्त्र मन्त्र नहीं होता, क्योंकि केवल वे ही मन्त्र कहे जाते हैं जिन्हें विद्वान् लोग स्वीकार करते हैं। दर्शपूर्णमास में जब पुरोहित चार मुट्ठी चावल निकालता है और उसे सूप में रखता है तो वह तीन मुट्ठी चावल पर मन्त्र पढ़ता है जिसका शाब्दिक अर्थ है-'सविता के आदेश पर अश्विनों के बाहुओं से तथा पूषा के हाथों से मैं तुम्हें अग्नि के लिए, जिसे तुम प्रिय हो, निकालता हूँ।' पू० मी० सू० (६।१।३६-३७) का कथन है कि सविता, पूषा एवं अश्विन शब्दों को, दर्शपूर्णमास के परिष्कारों के लिए, जहाँ देव अर्थात् पूजा के देवता अग्नि न हों, ऊह द्वारा परिवर्तित नहीं किया जा सकता। शबर ने सविता, अश्विन एवं पूषा के लिए खींचातानी करके अर्थ किया है और कहा है कि ये शब्द निर्वाप प्रकाशन के लिए प्रयक्त हैं। एक अन्य मनोरंजक उदाहरण है, जहाँ उह नहीं पाया जाता। दर्शपूर्णमास में एक प्रैष (निर्देश अथवा आदेश) है-छिड़कने के लिए जल रखो, समिधा एवं कुश रखो, सुची एवं स्रव को स्वच्छ करो, (यजमान की) पत्नी को मेखला पहना दो और घृत के साथ बाहर आ जाओ।' मान लीजिए यजमान की दो या तीन पत्नियाँ हों, तब भी एकवचन (पत्नीम्) का ही प्रयोग होता है न कि द्विवचन या बहुवचन का (पू० मी० सू० ६।३।२० एवं ६।३।२१) । धर्मशास्त्र के ग्रन्थों ने ऊह का प्रयोग किया है। विष्णुधर्मसूत्र (७५८) ने व्यवस्था दी है कि मन्त्र के ऊह के द्वारा एक ही ढंग से नाना एवं उसके दो पूर्व पुरुषों का श्राद्ध करना चाहिए। पूर्व पुरुषों के लिए मन्त्र यों है-'शुन्धन्तां पितरः' (आप० श्रौ० सू० ११७१३) जिसका परिवर्तन 'शुन्धन्तां मातामहाः' के रूप में हो जाता है। देखिए मिताक्षरा (याज्ञ० ११२५४)।
____ जब यज्ञ में पका चावल दिया जाता है तो मन्त्र यों होता है--'स्योनं. . .नीहीणां मेधः सुमनस्यमानः' (ते. ब्रा० ३१७१५)। जब पका चावल नष्ट हो जाता है या नहीं प्राप्त होता और नीवार अन्न का प्रयोग उसके स्थान पर होता है तो 'नीवाराणां मेध' ऐसा ऊह नहीं होता, प्रत्युत 'बीहीणां मेध' शब्द ज्यों-के-त्यों रखे जाते हैं (पू० मी० स०६।३।२३-२६), क्योंकि, जैसा कि पू० मी० सू० (६।३।२७) में कहा गया है (सामान्यं तच्चिकीर्षा हि), नीवार का प्रयोग व्रीहि की समानता के कारण ही किया जाता है।
वें अध्याय के तीसरे एवं चौथे पादों में पशुबन्ध में होता द्वारा पढ़े जाने वाले अधग-प्रेष के विषय में बारह अधिकरण हैं। देखिए, इस विषय में इस महाग्रन्थ का मूलखण्ड, २, पृ० ११२१, पाद-टिप्पणी २५०४, जहाँ यह प्रैष दिया हुआ है। वहाँ पर कुछ शब्दों के लिए ऊह की व्यवस्था है और पू० मी० सू० ने उस संदर्भ में कुछ अपरिचित एवं कठिन शब्दों की व्याख्या की है।
पू० मी० सू० का दसवाँ अध्याय सबसे बड़ा है। इसमें आठ पाद एवं ५७७ सूत्र हैं (अर्थात् सम्पूर्ण सूत्रों का एक-पाँचवाँ भाग)। तीसरे अध्याय में ३६३ सूत्र तथा ६ठे अध्याय में कुल ३४६ सूत्र हैं और दोनों अध्यायों में पृथक-पृथक् ८ पाद हैं। दसवें अध्याय में बाध एवं अभ्युच्चय या समुच्चय (बाध का विपरीतार्थक) का विवेचन
ह है कि प्रकृतियाग (आदर्श या नमून के यज्ञ) की बात विकृति में ज्यों-की-त्यों ले ली जानी चाहिए। किन्तु कुछ उदाहरणों में विकृति-याग का भिन्न नाम है, कुछ संस्कार (शुद्ध करने या सजाने आदि के कत्य एवं कछ द्रव्य जो प्रकृति में प्रयक्त होते हैं, विकृति में प्रयक्त नहीं हो सकते. क्योंकि स्पष्ट शब्दों में
निषेध दिया हुआ है, या क्योंकि इनसे कोई उपयोग नहीं सिद्ध होता और वे निरर्थक होते हैं। शबर का कहना है कि बाध तभी उपस्थित होता है जब किसी विशिष्ट कारण से कोई विचार या ज्ञान, जो निश्चित-सा रहता है, मिथ्या मान लिया जाता है, और अभ्युच्चय (जोड़ या मिलाव) उस समय उपस्थित होता है जब यह
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