________________
२०८
धर्मशास्त्र का इतिहास
के वर्णन के बीच में इसके विषय की उक्ति आ जाती है । १४ आश्विन के शुक्ल पक्ष की प्रथमा से नवमी तक के नवरात्र के विषय में निर्णयसिन्धु ने इसका आधार लिया है। कई मत हैं, यथा--- देवीपूजा ६ दिनों तक या अष्टमी या नवमी तिथि को की जाती है । कालिकापुराण ने आश्विन के शुक्ल पक्ष की अष्टमी या नवमी पर की जाने वाली देवीपूजा के विषय में एक श्लोक उद्धृत किया है, और निर्णयसिन्धु ने इसे अष्टमी या नवमी पर की जाने वाली एक पृथक पूजा की भांति माना है और सम्पूर्ण नवरात्र से इसे पृथक् ठहराया है । इसी अधिकरण में जहाँ पर पूर्वपक्ष में ऐसा प्रस्तावित है कि राजा किसी भी वर्ण का कोई भी हो सकता है जो किसी स्थान पर राज्य करता है तथा देश एवं उसके नगरों की रक्षा करता है, वहीं पर सिद्धान्त ( पू० मी० सू० एवं शबर ) यह कहता है कि 'राजा' शब्द एक जाति अर्थात् क्षत्रिय का द्योतक है और इस ओर कई पश्चात्कालीन धर्मशास्त्र ग्रन्थों ने संकेत किया है, यथा-- राजधर्म कौस्तुभ ( पृ० ५ ) | व्यवहारप्रकाश ने इस अधिकरण की ओर संकेत किया है और नारद के इस श्लोक की व्याख्या की है-'जो व्यक्ति संन्यासाश्रम से च्युत होता है वह राजा का दास हो जाता है' और इसे इस बात पर घटाया है कि क्षत्रिय के धर्म से च्युत व्यक्ति वैश्य राजा का दास हो जाता है, यद्यपि 'राजा' शब्द अपने मुख्य अर्थ में 'क्षत्रिय' का द्योतक होता है किन्तु गौण अर्थ अर्थात् लक्षणा में इसका अर्थ है वह व्यक्ति जो प्रजा की रक्षा करता है । पराशरमाधवीय ने इस अधिकरण की चर्चा विस्तार से की है ( १,१, पृ० ४४६४५५ ) | यह द्रष्टव्य है कि आरम्भिक ग्रन्थों में 'राजा' का जो अर्थ 'क्षत्रिय' था आगे चल कर किसी भी जाति के उस व्यक्ति का द्योतक हो गया जो अपने द्वारा शासित देश के लोगों की रक्षा करता है। यह परिवर्तन तन्त्रवार्तिक ( ३।५।२६ ) में संक्षिप्त रूप से व्याख्यायित हुआ है ।
i
बारहवें अध्याय में प्रसंग, विकल्प जैसे विषयों की चर्चा है । प्रसंग तब होता है जब एक स्थान में किया गया कर्म किसी दूसरे स्थान में सहायक होता है, यथा जब किसी भवन में दीपक जलाया जाता है तो वह जनमार्ग को भी प्रकाशित कर देता है । ५५ अग्निषोमीय पशुयज्ञ में पशुपुरोडाश (बलि दिये हुए पशु के मांस की रोटी) का अर्पण किया जाता है और इस प्रकार के शब्द कहे जाते हैं— 'अग्नि एवं सोम को पशु का मांस अर्पित करने के उपरान्त वह ग्यारह कपालों पर पकाया गया पशुपुरोडाश अग्नि एवं सोम को देता है ।' यहाँ पर प्रश्न यह है कि क्या इसके लिए पशुपुरोडाश देते समय पुनः प्रयाज आदि किये जायें या मांस दिये जाने के कृत्य पर्याप्त हैं । निश्चित निष्कर्ष यह है कि पशु-मांस दिये जाने के समय के कृत्य पशुपुरोडाश के लिए भी मान्य होते हैं। ऐसी परिस्थितियों में देश (स्थान), काल एवं मन एक ही प्रकार के माने जाते हैं । इस निष्कर्ष को प्रायश्चित्तविवेक ने भी ठीक माना है। पशुपुरोडाश की समानता के आधार पर उसने विभिन्न या अभिन्न गम्भीर पातकों के लिए १२ वर्षों वाले प्रायश्चित्त को पर्याप्त माना
५४. अवेष्टौ यज्ञसंयोगात्त्रतुप्रधानमुच्यते । पू० मी० सू० (२।३।३ ) ; अस्ति राजसूयः, राजा राजसूयेन यजेतेति । तं प्रकृत्यामनन्ति--अवेष्टिं नामेष्टिम् । आग्नेयोऽष्टाकपालो हिरण्यं दक्षिणा इत्येवमादि । तां प्रकृत्य विधीयते । यदि ब्राह्मणो यजेत बार्हस्पत्यं मध्ये निधायाहृतिमाहुतिं हुत्वाभिधारयेत । यदि राजन्य ऐन्द्रं यदि वैश्यो वैश्वदेवम् — इति । शबर; 'यदि ब्राह्मणो... वैश्वदेवम्' के लिए देखिए आप० श्र० ( १८।२१।११) । 'अवेष्ट यज्ञसंयोगात्' नामक सूत्र की व्याख्या मूल ग्रन्थ के इसी स्थल पर देखिए ।
५५. अन्यत्र कृतस्यान्यत्रापि प्रसक्तिः प्रसङ्गः । यथा प्रदीपस्य प्रासादे कृतस्य राजमार्गेथ्यालोककरणम् । शबर ( पू० मी० सू० १२।१।१ ) ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org