Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 5
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

Previous | Next

Page 222
________________ धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मीमांसासिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम २०५ ज्ञात रहता है कि कुछ बातें विकृति में जोड़ी जानी हैं किन्तु उसके साथ यह भी ज्ञात रहता है कि कुछ ऐसी बातें भी हैं जो विकृति के लिए अतिरिक्त रूप से जोड़ी जायेंगी। मैत्रायणीसहिता (२।२।२) ने व्यवस्था दी है कि लम्बी आयु के इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि वह घृत में गरम करके एक सौ कृष्णलों (चावल के दाने के रूप में सोने के टुकड़ों) का दान करे । किन्तु यहाँ पर कोई अवघात (अन्न की भसी छडाना अथवा अलग करना) नहीं होता (अर्थात् मसल से ओखली में कूटने का कार्य नहीं किया जाता) । क्योंकि यहाँ पर अन्न के दाने के रूप में सोने के टुकड़े हैं, जिन पर कोई छिलका या भूसी नहीं होती जिसे अलग करने के लिए कूटने का कर्म किया जाय (पू० मी० सू० १०।१।१-३) । इसी प्रकार उपस्तरण ( कुश बिछाना ) एवं अभिधारण (उसके पश्चात् ही घृत दारना) के कृत्य भी नहीं किये जाते, क्योंकि प्रकृतियज्ञ में ये कृत्य आहुति को मधुर गन्ध देने के लिए किये जाते हैं (१०।२।३-११) । चावल के चरु को पकाया जाता है (अर्थात् अग्नि की उष्णता उसे दी जाती है), उसी प्रकार सोने के टुकड़ों को घत में उष्ण किया जाता है (१०।२।१-२)। सोने के टकडों को गन्ने के टवडों की भांति चसना होता है (१०।२।१३-१६), क्योंकि वे खाये नहीं जा सकते, जब कि प्रकृतियज्ञ (आदर्श यज्ञ ) में इडा एवं प्राशित्र को वास्तव में खाया जाता है। दयेन जैसे इन्द्रजाल के कृत्य में पथिवी पर बेत (या बांस की बनी चटाई) बिछाया जाता है, कश नहीं (जैसा कि आदर्श यज्ञ में किया जाता है)। यह बाध विशिष्ट वचन के कारण उपस्थित होता है। वैदिक यज्ञों में सामान्य नियम यह है कि पुरोहितों का चनाव होता है और अन्त में उन्हें दक्षिणा दी जाती है, किन्तु सत्र अपवाद होते हैं, क्योंकि सत्रों में सभी पुरोहित एवं यजमान होते हैं। यहाँ पर वरण (चुनाव) के बाध का कारण यह है कि अन्य यज्ञों में यजमान एवं पुरोहित पथक-पृथक होते हैं और पुरोहितो को दक्षिणा के लिए नियुक्त किया जाता है। वहाँ पर पूरोहितों के वरण एवं नियुक्ति के लिए स्पष्ट उद्देश्य है। किन्तु सत्र में जहाँ सभी लोग यजमान एवं पुरोहित होते हैं, पुरोहितवरण (ऋत्विग्वरण) का कृत्य करने का कोई स्पष्ट उद्देश्य नहीं होता । समुच्चय का एक उदाहरण दिया जा सकता है। वाजपेय (जो पु० मी० स० ३।७।५०-५१ के मार ज्योतिष्टोम का एक रूप है) में सत्रह पशुओं की बलि होती है । आदर्श (प्रकृति) यज्ञ (अर्थात ज्योतिप्टोम) में भी कुछ विशिष्ट पशुओं की बलि होती है । प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यहाँ प्रकृति-याग में व्यवस्थित पशुओं का कोई बाध है या कोई समुच्चय । निष्कर्ष यह है कि यहाँ समुच्चय है (१०।४।६), क्योंकि तै० वा० में एक ऐसा वचन आया है--'ब्रह्मवादी पूछते हैं, “वाजपेय में सभी यज्ञिय कृत्य क्यों किये जाते हैं ?" उसे ऐसा उत्तर देना चाहिए-'पशुओं द्वारा, अर्थात् वह अग्नि को एक पशु की बलि देता है, इससे वह अग्निष्टोम धारण करता है, वह उक्थ्य धारण करता है. . .।' इससे प्रकट होता है कि वह सत्रह पशओं के अतिरिक्त अन्य पशुओं की भी बलि करता है। देखिए मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२४३) एवं तन्त्रवातिक (पृ० मी० सू० ३।३।१४) दसवें अध्याय में दक्षिणा के विषय में भी विवेचन है, जो महत्त्वपूर्ण है। १०।२।२२-२८ में ऐसा निश्चित किया गया है कि दक्षिणा किसी अदृष्ट उद्देश्य के लिए नहीं दी जायगी, प्रत्युत वह यज्ञों में व्यवस्थित कृत्यों सदन के लिए नियक्त पुरोहितों को दी जायेगी। ३।८।१-२ में ऐसा निश्चित किया गया है कि यजमान (स्वामी) यज्ञों के लिए पुरोहितों को रखे, केवल उसी कर्म के लिए ऐसा नहीं करे जिसके लिए स्पष्ट रूप से वैदिक वचन हैं (यथा--तै० सं० ५।२।८।२ में) । १०१३।३६ में ताण्ड्य ब्रा० (१६।१।१०-११) से उद्धत करके दक्षिणा के विषयों को उपस्थित किया गया है। ऐसा कहा गया है कि 'द्वादशशतं दक्षिणा' का अर्थ है कि गायों की संख्या ११२ होनी चाहिए (१०।३।३६,४६),१०।३।५० में ऐसी व्यवस्था है कि यजमान को स्वयं दक्षिणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452