________________
पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धांत
१४३ अब प्रश्न यह उठता है कि यह तथा वे वचन, जिनमें हेतु या कारण दिया हुआ है, अर्थवाद के रूप में ग्रहण किये जाय या केवल आज्ञा के लिए हेतु बताने वाले के रूप में ग्रहण किये जायें । व्यवस्थित निष्कर्ष तो यह है कि वे स्तुतिमूलक हैं। यदि दूसरा मत स्वीकार किया जाय (यथा-श्रुति विधि के लिए कारण देती है) तो स्रुव तथा अन्य पात्र भी आहुति के लिए मान्य ठहराये जायें (न केवल सूप ही), क्योंकि वे भी भोजन बनाने में प्रयुक्त होते हैं। रघुनन्दन नं मलमासतत्त्व (पृ.० ७६०) में इस उवित का आधार लिया है और लघु-हारीत की ओर संकेत करते हुए इसकी व्याख्या की है 'चक्रवत् परिवर्तेत सूर्यः कालवशाद् यतः'। ऐसा नहीं समझना चाहिए कि सभी अर्थवादों का उद्देश्य स्तुति ही है। 'वह लेपयुवत ढेले रखता है, घृत सचमुच दीप्तिमान है' (तै० ब्रा० ३।२।५॥१२) में उस वस्तु के प्रति एक सन्देह यह उत्पन्न है जिससे ढेले लेपित होते हैं। वह सन्देह वचन के शेषांश से दूर होता है, अर्थात् वह पदार्थ घृत है जिससे डेले लेपित होते हैं।
अर्थवाद के तीन प्रकार हैं, यथा-गुणवाद, अनुवाद एवं भूतार्थवाद । जब कोई अर्थवाद विसी सामान्य अनुभव के विपरीत पड़ता है तो वह लाक्षणिक होता है; जब कोई बात ज्ञान के किसी अन्य साधन से स्पष्ट रूप से निश्चित होती है और किसी मूल ग्रन्थ या वचन का विषय हो जाती है तो वह 'अनुवाद' कहलाती है और जब कोई मूल अन्य प्रमाणों के विरोध में नहीं पड़ता या निश्चित रूप से निरूपित नहीं हो पाता तो वह 'भूतार्थवाद' (किसी निर्णीत तथ्य या अतीत घटना का कथन ) कहलाता है। प्रथम प्रकार का उदाहरण यह है-'दिन में
एक चातुर्मास्य है) में करम्भपात्रों (ऐसे पात्र जिनमें भूसी से रहित यव थोड़ा भून कर रखे गये हों और साथ में दही आदि हो) का होम देने के लिए सूप (शर्म) का प्रयोग जुहु के स्थान पर होता है। पू० मी० सू० की स्थिति एवं मान्यता यह है कि वेद जो कुछ घोषित करता है वह प्रामाणिक है। वेद की उक्तियों के लिए तर्फ एवं कारण देने की आवश्यकता नहीं होती। अपनी घोषणा के लिए यह कारण की बात चला सकता है। किन्तु इसकी कोई आवश्यकता नहीं होती। भाटचिन्तामणि में आया है : "अनेन वेदविहितेऽर्थे हेत्वपेक्षा नास्तीति पार्थसारथिप्रतिपादितानपेक्षत्वं हेतुवावस्येति सूचितम् । उक्तं त्र 'न हि वेदेनोच्यमानं हेतुमपेक्षते' इति ॥' इस हेतुवनिगदाधिकरण को विस्तृत व्याख्या के लिए देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड ३ (पृ० ६७६-७७), पाद-टिप्पणी १२७७) । वहाँ वसिष्ठ (१५॥३-४) के नियम (न त्वेकं पुत्रं दद्यात् प्रतिगृहणीयाद्वा स हि सन्तानाय पूर्वेषोम) की व्याख्या है। यहाँ पर पहला एक विधि है, क्योंकि 'दद्यात्' एवं 'प्रतिगृहणीयात्' दोनों इच्छार्थक काल-वृत्ति में हैं, और बाद वाला हेत्वार्थक होने के कारण अर्थवाद है (क्योंकि पुत्र की महत्ता गायी गयो है)।
३४. निरुक्त (१११६) ने उदितानुवाद के विषय में कहा है, स भवति । विरोधे गुणवादः स्यादनुवादोऽवधारिते । भतार्थवादस्तद्धानादर्थवादस्त्रिधा मतः । मी० बा० प्र० (पृ० ४) द्वारा उद्धत । अनुवादोऽवधारित इत्यरोदाहरणं तु नृसिंहाश्रमरुक्तम् । अग्निहिमस्य भेषजम्इति । तत्स्वाध्यायाध्ययनबंधुर्याद् वैचित्त्याद्वा । मो० बा० प्र० (पृ० ४८) । यह द्रष्टव्य है कि मधुसूदन सरस्वती ने प्रस्थानभेद, अर्थसंग्रह (पृ० २५ थिबोट) में तथा म० म० मा (पूर्वमीमांसा इन इट्स सोर्सेज, पृ० २०१) ने इसी वचन को अनुवाद के रूप में उद्धत किया है। अनुवाद की एक अनुल्लंध्य परिभाषा यह है ‘स नामानुवादो भवति योऽत्यन्तसमानार्थत्वेनावधार्यते।' (तन्त्रवातिक, पृ० ६११, २।४।१३ को व्याख्या में) । मेधातिथि (मनु० २।२२७-मत्स्य० २१।२२) मे यह कहते हुए कि कोई व्यक्ति सौ वर्षों में भी बच्चे के जन्म एवं पालन-पोषण में माता-पिता जो कष्ट सहन करते हैं उनका प्रतिदान नहीं दे सकता, ऐसा मत दिया है कि यह भूतार्थनुवाद है। मधुसूदन सरस्वती ने प्रस्थान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org