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धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मीमांसा सिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम
होती है, किन्तु पृथक् (विभाजित) हो जाने पर धार्मिक पूजा भी पृथक्-पृथक् होने लगती है। यहाँ पर 'अपृथक् व्यक्तियों' मुख्य विषय है, एवं 'भाइयों' शब्द विशेषण या उपाधि रूप में है, जिस पर आरूढ होने की आवश्यकता नहीं है, अत: यही नियम अलग न हए पितामह, पिता, पुत्रों, चाचाओं एवं भतीजों के विषय में भी लाग होता है। मेधातिथि (मनु २।२६) ने इस न्याय का उल्लेख किया है । यही नियम कुछ मामलों में (अर्थात् कहीं-कहीं) लिंग के लिए भी प्रयुक्त होता है, अर्थात् पुरुषों का द्योतक शब्द स्त्रियों को भी अपने में सम्मिलित करता है। उदाहरणार्थ, याज्ञ० (२।१८२) एवं नारद (८।४०) ने दास के विषय में कुछ नियमों की व्यवस्था की है। व्यवहारमयूख का कथन है कि इन वचनों में मुल्लिग (पुंस्त्व) पर ही सीमित नहीं रहना है, नियम स्त्रियों (दासियों) के लिए भी है।' इन नियमों के अपवाद भी हैं । ‘ग्रहों' (प्यालों) के विषय का नियम 'चमसों' (चमचों) के लिए प्रयुक्त नहीं होता है (पू० मी० सू० ३।१।१६-१७) । यह नियम कि किसी विधि में, किसी विषय का विशेषण शाब्दिक अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए और न उस पर बल ही दिया जाना चाहिए, अन्य बातों के लिए भी प्रयुक्त होता है। कुछ गम्भीर अभियोगों में 'दिव्य'-सम्पादन के विषय में कल्पतरु (व्यवहार पर, पृ० २१०-२११) एवं व्यवहारमयूख (पृ० ४५-४६) ने कालिकापुराण से तीन श्लोक उद्धत किये हैं और इस उक्ति (वचन या न्याय का कथन) का प्रयोग व्यवहारमयूख द्वारा इन शब्दों में हुआ है-'परदाररूपं विशेषणमविवक्षितमभिशापरयानुवाद्यत्वात्' (देखिए व्य० म०, पृ० ८३-८४) । किन्तु ‘पशुमालभते' में, जहाँ 'याग' के विषय की विधि है, ऐसा अवश्य समझा जाना चाहिए कि जो व्यवस्थित हुआ है, वह याग है जिसमें पुंस (नर) पशु की बलि की व्यवस्था है, इसीलिए एक ही पशु (और वह भी नर पशु) की बलि दी जाती है।
यद्यपि वेद ने 'स्वर्गकामो यजेत' (स्वर्ग की इच्छा करने वाले को यज्ञ करना चाहिए) में पुंल्लिग का प्रयोग किया है, किन्तु जैमिनि (६।१।६-१६) ने व्यवस्था दी है कि यहाँ स्त्रियाँ भी सम्मिलित हैं और उन्हें भी याग करने का अधिकार है। जैमिनि ने आगे व्यवस्था दी है कि पति एवं पत्नी को एक साथ धार्मिक कर्तव्य करना चाहिए. (६।१।१७-२१), किन्तु उन्होंने ऐसा कह दिया है कि जहाँ श्रुति ने कुछ विषयों को केवल यजमान (पुरुषकर्ता) द्वारा किये जाने की व्यवस्था दी है, वहाँ केवल पुरुष ही वैसा करेगा, क्योंकि मन्त्रों के ज्ञान में पत्नी पति के समान नहीं होती और वह अज्ञानी भी होती है, इसीलिए, उसको उन्हीं कर्मों को करने की छूट है, जहाँ स्पष्ट रूप से व्यवस्था है, यथा---घृत की ओर देखना, ब्रह्मचर्य-पालन आदि (६।१।२४) 'तस्या यावदुक्तमाशी
प्रधाने लिङगसंख्यादि विशेषणं विवक्ष्यते, ग्रहं समाष्र्टीति सत्यप्येकवचने सर्वे ग्रहाः संमृज्यन्ते।' श्लोकवातिक ने उद्देश्य को यों परिभाषित किया है-'यद्वतयोगः प्राथम्यमित्याद्युद्देश्यलक्षणम् । तद्वत्तमेवकारश्च स्यादुपादेयलक्षणम् ॥ वदत्यर्थ स्वशक्त्या च शब्दो वक्त्रनपेक्षया ॥ अनुमानपरि०, श्लोक १०६-११०।
७. अस्मिन् प्रकरणे दासपदगत पुंस्त्वस्याविवक्षितत्वाद् दास्यामप्येष सर्वो विधि यः। व्य० म० (१० २१०)। देखिए व्यवहारममूख (वीरमित्रोदय का भाग, पृ० ३२२)। ६।१।६ पर शबर ने ('पशुमालभेत') के विषय में टिप्पणी की है:--'इदं तु पशुत्वं यागस्य विशेषणत्वेन श्रूयते। तत्र पशुत्वस्य यागस्य च सम्बन्धो न द्रव्ययागयोः।' यथा पशुत्वं याग सम्बद्धमेवं पुंस्त्वमेकत्वं च। सोयमनेकविशेषणविशिष्टो यागः श्रयते । स यथाभ्रत्येव कर्तव्यः। उपादेयत्वेन चोदितत्वात् ।' पृ० १३५६ ।।
___. तस्मात्फलार्थिनी सती स्मृतिमप्रमाणीकृत्य द्रव्यं परिगृह्णीयाद्य जेत चेति । शबर (पू० मी० स० ६।१।१३ पर)।
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