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धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मीमांसासिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम
१८६ वाक्यों के विषय में एक अन्य सिद्धान्त है जिसे 'अनुषंग' कहा जाता है। अनुषंग में शब्द, शब्द-समूह या वाक्य की एक वाक्य से दूसरे वाक्य तक या अन्य वाक्यों तक अनवत्ति (बढ़ाव) पायी जाती है, जब वे बानय एक ही कोटि या प्रकार के हो। यह अनुषंग की एक कोटि है। दूसरी कोटि वहाँ लक्षित होती है जहाँ पर दो या अधिक वाक्यों में प्रत्येक अपने में स्वत: पूर्ण लगता है, किन्तु अन्तिम वाक्य में कुछ ऐसे शब्द पाये जाते हैं जिन्हें पूर्ववर्ती वाक्यों में भी प्रयुक्त मान लेना पड़ता है। इसको 'अनु कप' भी कहा जाता है। ज्योतिप्टोम के तीन उपसदों में प्रथम उपसद् अग्नि के सम्मान में है, जिसमें मन्त्र इस प्रकार है-- 'या ते अग्ने अयाशया तनर्वपिष्ठा गह्वरेष्ठोग्रं वचो पावधी त्वेषं वचोऽपावधी रवाहा', अन्य दो उपसदों में दो मन्त्र यों हैं.---'या ते अग्ने राजाशया' एवं 'या ते अन्ने हराशया' जो अपूर्ण हैं, और वाक्यों को पूर्ण करने के लिा परक शब्दों की अपक्षा रखते हैं।२४ निष्कर्ष यह है कि 'वषिष्ठा...स्वाहा' नामक शब्दों को प्रथम वाक्य से उसमें मिलाना पडेगा, न कि प्रचलित भाषा के कोई अन्य शब्द मनचाहे ढंग से ग्रहण किये जायेंगे । तै० सं० (१।२१११२) का एक अन्य वचन यों है--'चित्पतिस्त्वा पुनातु, वाक्यतिस्त्वा पुनातु, देवस्त्वा सविता पुनात्वच्छिद्रेण पवित्रेण वसोः सूर्यस्य रश्मिभिः ।' यहाँ पर प्रथम दो पद-समूह (वाक्य) प्रथम दृष्टि में पूर्ण-से लगते हैं, किन्तु जब हम अन्तिम वाक्य पर दृष्टिपात करते हैं , जहाँ पर 'पुनातु' शब्द अन्य शब्दों द्वारा विशेष रूप से गटित है, तो हम हठात् अनुभव करते हैं कि प्रथम दो वाक्य भी 'अच्छिद्रेण. . . रश्मिभिः' से सम्बन्धित किये जाने चाहिए, और तभी वे पूर्ण हो सकेंगे।
मिताक्षरा एवं मदनरत्न ने फिर से मिले हुए (संसृष्ट) की मृत्यु के उपरान्त उसके धन के उत्तराधिकार के विषय में जो अनुषंग सिद्धान्त प्रयुक्त किया है , उस पर व्यवहारमयूख ने एक लम्बा विवेचन उपस्थित किया है । याज्ञ० (२।१३५-१३६) ने पुत्रहीन व्यक्ति की मृत्यु के उपरान्त उसके धन के भागियों का कर्म निर्धारित किया है । याज्ञ० (२११३७) में वानप्रस्थ, संन्यासी एवं नैप्टिक ब्रह्मचारी की सम्पति के बँटवारे की चर्चा है । मिता० का कथन है कि याज्ञ० (२।१३८) में जो ‘संसृष्टिनस्तु संसृष्टि' दलोक आया है वह याज्ञ० (२।१३५-१३६ ) का अपवाद है और उसका पुन: कथन है कि जो पुत्रहीन मरता है' (पौत्र या प्रपौत्र) में पढ़े हुए शब्द याज्ञ० (२।१३६) से लेकर याज्ञ० (२।१३८ ) के पूर्व भी आने चाहिए (अर्थात् 'स्वर्यातस्यापुत्रस्य' नामक शब्दों का अनुषग होना चाहिए) । किन्तु व्यवहारमयूख इसे नहीं मानता और कहता है कि अनुषंग के सिद्धान्त के प्रयोग के लिए कोई तर्क नहीं है और इसीलिए संसृष्ट द्वारा छोड़े गये धन के उत्तराधिकार के बारे में व्यवहारमयूख ने जो क्रम प्रतिपादित किया है वह मिताक्षरा के सिद्धान्त से भिन्न है। जो लोग इस विषय में विस्तार से पढ़ना चाहते हैं वे देखें, व्यवहारमयूख (पूना, १६२६) पर टिप्पणियाँ (पृ० २६५-२७५)
२४. अनुषङगणे वाक्य समाप्तिः सर्वेषु तुल्ययोगित्वात् । पू० मी० सू० (२।१।४८); या ते अग्ने अयाशया तनूर्वषिष्ठा गह्वरेष्ठोग्रं वचोऽपावधी त्वेषं वचोऽपावधीं स्वाहा, या ते अग्ने रजाशया, या ते अग्ने हराशया इति । अत्र सन्देहः। तनुर्वषिष्ठेति कि सर्वेष्वनुषक्तव्यामाहोस्विल्लौकिको वाक्यशेषः कर्तव्य इति। मन्त्रों के लिए देखिए तै० सं० (११२।११।२) एवं वाज० सं० (२८)। देखिए इस महाग्रन्थ का मूलखण्ड २, पृ० ११५१, पाद-टिप्पणी २५६२ । वाज सं० एवं शतपथब्राह्मण (३।४।४।२३-२५) ने 'अयःशया', 'रजःशया, एवं 'हरिशया' पाठान्तर दिया है।
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