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धर्मशास्त्र का इतिहास रोग से पीड़ित रहने वाला व्यक्ति (रिवथ का) भाग नहीं पाता, वह केवल जीविका का अधिकारी है । देखिए इस महाग्रन्थ का मलखण्ड ३, पृ०६१०-६१२ । मिताक्षरा (याज्ञ० २११४०) में आया है कि अयोग्यता की बातें पुरुषों एवं नारियों पर समान रूप से लाग होती हैं। किन्तु अभी कछ वर्ष पूर्व (सन् १६५६ में) हिन्दु उत्तराधिकार व्यवहार (कानन, सं० ३२) द्वारा अयोग्यता की सभी धाराएं समाप्त कर दी गयीं, अब कोई भी दोष या शरीर-विकलता के आधार पर रिक्थाधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता, केवल उन्हीं बातों पर प्रतिबन्ध है जो इस व्यवहार (कानुन) के अन्तर्गत (२८ वाँ प्रकरण ) हैं।
छठ अध्याय के बहत-से सूत्र 'प्रतिनिधि' के विषय में विवेचन उपस्थित करते हैं। इन सत्रों का विवेचन इस महाग्रन्थ के मूल खण्ड २ पृ० ६८४, १११०, १२०३, खण्ड ३, पृ० ४७१, ६३७, ६५३, ६५४ (जहाँ सत्यापाद श्रौतसत्र ३ का उल्लेख समान नियमों के कारण किया गया है) में हो चका है। कछ उदाहरण यहाँ उल्टिग्वित हो रहे हैं। प्रथम नियम यह है कि यदि आहति के लिए वेद द्वारा घोषित पदार्थ नष्ट हो जाय और वह आहुति नित्य (आवश्यक ) हो या उस काम्य कृत्य के लिए हो जिसका आरम्भ हो चुका हो तो दूसरे पदार्थ द्वारा प्रतिनिधित्व कराया जा सकता है । यथा-व्रीहि (चावल) या यव के स्थान पर नीवार का प्रतिनिधित्व हो सकता है (६।३।१३-१७)। कछ बातों में वैदिक वचनों ने प्रयोग में लायी जाने वाली वस्तु के स्थान पर प्रतिनिधि की छट दे दी है, यथा---'यदि यजमान को सोम का पौधा न मिले तो वह पूतीका-डण्टल को प्रयोग में ला सकता है और उसके रस से कर्म-सम्पादन कर सकता है। विरोधी तर्क उपस्थित करता है कि वेद ने स्पष्ट रूप मे सोम के प्रतिनिधित्व के लिए पूतीका की व्यवस्था कर दी है, अत: जहाँ वेद सर्वथा मौन है वहाँ ऐसा समझना चाहिए कि वेद ने वहाँ प्रतिनिधि की व्यवस्था नहीं की है। सिद्धान्त यह है कि प्रतिनिधि के रूप में पूतीका की व्यवस्था एक प्रतिषेधात्मक नियम है, अर्थात् यद्यपि सोम से मिलते-जुलते बहुत-से पौधे प्राप्त हो सकते हैं, किन्तु प्रतिषेध या नियन्त्रण यह है कि केवल पूतीका से ही प्रतिनिधित्व करना चाहिए। ऐसी व्यवस्था दी गयी है (३।६।३७, २१)कि जहाँ नीवार जैसे प्रतिनिधियों का प्रयोग होता है, वहाँ जल छिड़कना, ऊखल एवं मसल से चर्ण बनाना (चावल या यव को कट कर चूर्ण बनाना) आदि सहायक कर्म भी उन पर किये जाते हैं। चावल के प्रयोग में मन्त्र स्पष्ट रूप से कहता है कि केवल अन्न की (भूसी से रहित चावल की) आहुति होती है। 'नीवाराणां मेथ' (पू० मी० स० ६।३।१-२) के रूप में ऊह (अनुकलन) किया जाता है । ४४ किन्तु कुछ बातों में प्रतिनिधि की बात नहीं उठती। उस देवता का, जिसके लिए हवि की व्यवस्था रहती है, प्रतिनिधित्व किसी अन्य द्वारा नहीं होता, यथा 'आग्नेयोप्टाकपाल:' का परिवर्तन 'ऐन्द्रोष्टाकपालः' के रूप में नहीं हो सकता, क्योंकि वैसी स्थिति में कृत्य का उद्देश्य ही समाप्त हो जायेगा। इसी प्रकार जब ऐसा वचन आया है कि 'वह आहवनीय अग्नि में आहति डालता है' तो वहाँ गार्हपत्य अग्नि द्वारा प्रतिनिधित्व नहीं किया जा सकता; एक व्यवस्थित मन्त्र के स्थान पर अन्य मन्त्र नहीं रखा जा सकता और न 'समिधो यजति' आदि प्रयाजों के लिए अन्य कृत्यों की व्यवस्था हो सकती है।४५
वेद ने वरक, कोद्रव एवं माष का प्रयोग यज्ञों के लिए वजित ठहराया है। यदि कोई व्यक्ति टिवश माष भन्न को मुद्ग अन्न समझ कर किसी ऐसे यज्ञ में प्रयोग करता है जिसमें उबले मुद्ग की आहुति देने की व्यवस्था
४४. अस्ति तु प्रकृतौ ब्रोहिलिगो मन्त्रः-स्योनं ते सदनं... प्रतितिष्ठ वीहीणां मेधं सुमनस्यमान इति । शबर (६॥३॥१)। यह ते० प्रा० (७७।५।२-३) में पाया जाता है। मेध का अर्थ है सारभूत ।
४५. न देवताग्निशब्दक्रियमन्यार्थसंयोगात्। पू० मी० सू० (६॥३॥१८)।
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