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धर्मशास्त्र का इतिहास निश्चित निष्कर्ष यह है कि विस्तार के विषय का क्रम याज्यानुवाक्या मन्त्रों से तय किया जाय । ये 'प्र णो देवी सरस्वती' (तै० सं० ११८।२२।१, ऋ०, ६६११४) नामक शब्दों में नारी देवता के बारे में सर्वप्रथम उल्लिखित हैं। अतः निष्कर्ष यह है कि विस्तार में भी नारी देवता वाली आहतियाँ पहले होनी चाहिए।
पु० मी० स० (५३१११६) में यह निर्णीत हआ है कि मन्त्रों द्वारा उपस्थित क्रम को ब्राह्मण ग्रन्थों में वर्णित क्रम की अपेक्षा वरीयता प्रदान की जानी चाहिए। दर्शपूर्णमास यज्ञ में आग्नेय, उपांश एव अग्नीपोमीय अन्य यज्ञ समाहित हैं। तै० सं० (२॥५॥२॥३) में अग्नीषोमीय यज्ञ का उल्लेख पहले हुआ है और तै० सं०
आग्नेय का उल्लेख हुआ है। किन्तु ये ब्राह्मण-ग्रन्थ कहे जाते हैं. यद्यपि अब वे संहिता-वचनों में उल्लिखित हैं, क्योंकि उन्होंने विधि की व्यवस्था दी है। किन्तु मन्त्रपाठ में आग्नेय मन्त्र 'अग्निमर्धा' ३१५७११) सर्वप्रथम आया है और उसके उपरान्त 'अग्नीषोमा सवेदसा' (तै० ब्रा० ३१५७२) आया है। अत: आग्नेय का सम्पादन पहले होना चाहिए और उसके उपरान्त अग्नीषोमीय का।
यदि कतिपय कर्मों या वस्तुओं द्वारा बहुत से देवताओं का आतिथ्य करना हो, या यदि बहुत से युप (यज्ञिय स्तम्भ या खूटे) हों, यथा---एकादशिनी पशुबलि में, जिन पर अजन से लेकर परिव्याण (मेखला या करधनी से घेना) तक के संस्कार किये जाते हैं, तो क्या अंजन से लेकर परिव्याण तक के सारे संस्कार प्रथम यप पर और उसके उपरान्त उन्हीं संस्कारों को दूसरे यप पर करके उसी क्रम से अन्य सभी यपों के साथ ऐसा करना चाहिए, या सभी यूपों पर एक-एक करके अंजन लगा देना चाहिए और अन्य संस्कार सभी यपों पर एकके उपरान्त एक करके कर देने चाहिए और इस प्रकार अन्तिम संस्कार परिव्याण का सम्पादन सभी यपों पर एक के उपरान्त एक करके करना चाहिए। प्रथम ढंग को 'काण्डानुसमय' एवं दूसरे को ‘पदार्थानसमय' कहा जाता है।४२ जैमिनि ने (५।२।७-६) एवं (५।२।१-३) में क्रम से प्रथम एवं द्वितीय ढंग का उल्लेख किया है। इस विषय में देखिए इस महाग्रन्थ का मूलखण्ड २, पृ० ७३६-७४०, पृ० ११३२, पाद-टिप्पणी २५२८ तथा
४४१-४२, पाद-टिप्पणी ६८७ । याज्ञ० (०२३२ : 'अपसव्यं ततः कृत्वा') पर मिताक्षरा की टिप्पणी है कि श्राद्धकर्ता वैश्वदेव ब्राह्मणों के लिए काण्डानुसमय ढंग अपनाता है, अर्थात् पहले पैर धोने के लिए जल देता है, तब आचमन के लिए जल देता है, तब आसन, चन्दन, पुष्प आदि देता है, तब वह अपने दाहिने कंधे पर यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करता है और पित्र्य ब्राह्मणों को उपचारों का अर्पण करता है।
पूर्वमीमांसा सूत्र का छठा अध्याय अति मनोरंजक है। इसमें यज्ञकर्ता की अर्हताओं एवं उसके अधिकार के प्रश्न के विभिन्न स्वरूपों का विवेचन है। यह लम्बा अध्याय है जिसमें तीसरे एवं दसवें आठ पाद हैं। धर्मशास्त्र के ग्रन्थों पर इस अध्याय के कतिपय सिद्धान्तों का बड़ा प्रभा वैदिक यज्ञों में सम्मिलित होने में स्त्रियों का अधिकार, उसी विषय में शूद्रों का अधिकार, रथकार-न्याय, निषाद
४२. जैमिनि (०२।१-३) पर पार्थसारथि का कथन है--'प्रथमं सर्वेषां कृत्वा ततो द्वितीयः कर्तव्यः । एवं दर्शपूर्णमासादिष्वनेकप्रधानसमवाये पदार्थानुसमय एव न्याय्यो न काण्डानुसमय इति स्थितम् ।' शास्त्रदीपिका(प० ४२१);..... गार्ग्यनारायण ने (आश्वलायनगृह्य सूत्र श२४१७ पर) व्याख्या की है-तत्र नाम सर्वेषां वरणक्रमेण विष्टरं दत्त्वा ततः पाद्यं ततोय॑मिति। काण्डानुसमयो नाम एकस्यैव विष्टरादिगोनिवेदनान्तं समाप्य ततोऽन्यस्य सर्वं ततोऽन्यस्येति । व्य० म० (पृ० ६६) ने 'तुला' नामक दिव्य में देवताओं को पूजा में पदार्थानुसमय की चर्चा की है।
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