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धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मीमांसासिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम
दस्थपति-न्याय आदि का, और हमने इनका पहले ही उल्लेख भी कर दिया है। जैमिनि न पू० मी० सू० (६।१। १-३) में प्राथमिकी के रूप में स्थापना की है कि इस प्रकार के वचनों में, यथा-'स्वर्गकामी को दर्शपूर्णमास या ज्योतिष्टोग यज्ञ करना चाहिए,' वेद ने स्वर्ग की इच्छा करने वाले के लिए याग की व्यवस्था की है, अर्थात् स्वर्ग को प्रधान तत्त्व कहा गया है और याग को सहकारी या गौण स्थान दिया गया है, जिससे यह प्रकट होता है कि वैदिक वचन ने यज्ञकर्ता की विशेषताओं का उल्लेख किया (व्यवस्था की) है । टुप्टीका का कथन है कि अधिकारी स्वामी है जो सभी कर्मों (याग) के ऊपर अवस्थित है । एक अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत परिभाषाएँ दी गयी हैं-'अधिकारी वह है (अर्थी) जो किसी फल की आशा करता है (यथा स्वर्ग या सुख की), (समर्थ) जो व्यवस्थित कर्म के सम्पादन की समर्थता रखता है, जो विद्वान होता है और जो श्रुति द्वारा यज्ञ करने के लिए अमान्य नहीं ठहराया गया है।' छोटे-छोटे जीव भी सर व की कामना करते हैं; अत: उन्हें 'व्यवस्थित कर्म के सम्पादन की समर्थता' आदि शब्दों द्वारा अलग कर दिया गया है। यह सम्भव है कि कोई व्यक्ति पूर्णरूपेण अबोध हो, इसीलिए 'विद्वान्' शब्द जोड़ा गया है। शूद्र भी सुख (आनन्द) की कामना कर सकता है, समर्थ हो सकता है और विद्वान् हो सकता है, किन्तु उसे "शुद्र यज्ञ के योग्य नहीं है" इस वैदिक वचन द्वारा अलग कर दिया गया है।
पू० मी० सू० (६।१।३६-४०) में यह निश्चित किया गया है कि तीन उच्च वर्गों में प्रत्येक को वैदिक यज्ञों के सम्पादन का अधिकार है। एक व्यक्ति एक बार धनहीन हो सकता है, किन्तु आगे चलकर वह विविध साधनों से धन एकत्र कर सकता है। उसी प्रकार ६।११४१ में ऐसा आया है कि जो किसी अंगविकलता से संकुल है (उसका कोई अंग व्याधिग्रस्त या अनुपयोगी हो गया है) वह धनहीन व्यक्ति के समान ही है, अर्थात् ऐसे व्यक्ति को, यदि वह अपनी अंग-दुर्बलता को दूर कर ले तो वैदिक यज्ञों के सम्पादन का अधिकार है। ६।११४२ में यह भी व्यवस्था दी हुई है कि यदि दोष जन्मजात है या उसे अच्छा नहीं किया जा सकता तो ऐसे दोष से ग्रस्त रहने वाले को वैदिक यज्ञों के सम्पादन का अधिकार नहीं है।
इसी के आधार पर रिक्थ एवं रिक्था धिकार से सम्बन्धित प्राचीन एवं मध्यकालीन हिन्दू व्यवहार (कानून) निरूपित किया गया है। देखिए याज्ञ० (२।१४०), मनु (२०१) एवं नारद (दायभाग, श्लोक २१-२२) । याज्ञ० (२।१४०) में घोषित है कि नपुंसक, जातिभ्रष्ट एवं उसका पुत्र, लँगड़ा, पागल, मूर्ख, अंधा तथा असाध्य
४३. तस्मात्स्वर्गकामस्य यागकर्मोपदेशः स्यात्। अतः स्वर्गः प्रधानतः कर्म गुणतः इति स्वर्गकाममधिकृत्य यजेतेति वचनमित्यधिकारलक्षणमिदं सिद्धम् । शबर (पू० मी० सू० ६॥१॥३); अधिकारीति कर्मणामुपरिभावेनावस्थितः स्वामीत्यर्थः । टुपटीका (उसी पर); अर्थो समर्थो विद्वान् शास्त्रेणापर्युदस्तोधिकारी। सर्वदर्शनकौमुदी (पृ० १०३) । शबर एवं कुमारिल ने विभिन्न स्थानों पर जो कुछ कहा है उसका सार-संक्षेप सर्वदर्शनकौमुदी ने एक ही स्थान पर दे दिया है, यथा-'न चैतदस्ति तिर्यगादीनामप्यधिकार इति । कस्य तहि। यः समर्थः कृत्स्नं कर्माभिनिर्वर्तयितुम् । न देवानां देवतान्तराभावात् । न ह्यात्मानमुद्दिश्य त्यागः सम्भवति। त्याग एवासी न स्यात् । ... अपि च तिर्यञ्चो न कालान्तरफलेनार्थिनः । आसन्नं हि ते कामयन्ते।...न चैते (तिर्यञ्चः) बेदमधीयते नापि स्मृतिशास्त्राणि । नाप्यन्येभ्योऽव गच्छन्ति । तस्मान्न विदन्ति धर्मम् । अविद्वासः कथमनुतिष्ठेयुः । शबर (पू० मी० सू० ६।११५) । शूद्रो मनुष्याणामश्वः पशूनां तस्मात्तौ भूतसंक्रामिणावश्वश्च शूद्रश्च । तस्माच्छूद्रो यज्ञेऽनवक्लुप्तः। तै० सं० (७।१।१।६) । सायण ने 'अनवक्लुप्तः' को 'यज्ञे प्रवर्तितुं न योग्यः' के अर्थ में लिया है।
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