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धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मीमांसासिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम
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जहाँ श्रुति एवं लिंग दोनों में विरोध हो जाता है, उसका उदाहरण इस वचन में पाया जाता है--'ऐन्द्री ऋचा के साथ ( वह पद्य जो इन्द्र को सम्बोधित है) उसे गार्हपत्य अग्नि की स्तुति करनी चाहिए । ऐन्द्री पद्य यह है -- 'निवेशन: संगमनो वसूमां... इन्द्रोन तस्थौ समरे पथीनाम्' ( तै सं० ४ | २|५|४) । यहाँ पर सन्देह इस बात को लेकर उठता है कि इन्द्र को सम्बोधित पद्य के साथ इन्द्र की स्तुति की जाय (जैसा कि 'ऐन्द्रया' शब्द से प्रकट होता है) या गार्हपत्य अग्नि की (जैसा कि उक्ति में प्रत्यक्ष रूप से आया है) या इच्छानुसार इन्द्र या गार्हपत्य में किसी की स्तुति की जाय । ३२ निष्कर्ष यह है कि श्रुति ( प्रत्यक्ष श्रूयमाण कथन या वचन) लिंग की अपेक्षा अधिक बलशाली होता है । 'गार्हपत्यम् उपतिष्ठते' शब्दों को सुनने पर लगता है, हमको गार्हपत्य की पूजा के लिए वेद द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्देश मिल रहा है । 'ऐन्द्रया' शब्द करण कारक में है, ( यथा 'दध्ना जुहोति' अर्थात् दही से होम करता है ) अत: वह केवल गुण बताता है कि जो मन्त्र कहा जायेगा वह इन्द्र को सम्बोधित है और यहाँ कोई अन्य शब्द ऐसा नहीं है जो यह स्पष्ट रूप से बतलाये कि इन्द्र की स्तुति करनी है। शबर ( पू० मी० सू० ३।२1४ ) ने व्याख्या की है कि गार्हपत्य में इन्द्र की कुछ विशेषताएँ (गुण) पायी जाती हैं, अतः रूपक के रूप में उसे इन्द्र कहा जा सकता है (जैसे कि हम वीर पुरुष को सिंह कह देते हैं), क्योंकि गार्हपत्य इन्द्र की भाँति यज्ञ करने का एक साधन है या गार्हपत्य 'इन्द्' धातु के अर्थवश इन्द्र कहा जा सकता है और उसका अर्थ ईश्वर या स्वामी हो सकता है | 33
इन छह साधनों में प्रत्येक अपने अनुसारी साधनों के विरोध में पड़ सकता है । अतः श्रुति के लिंग, वाक्य, प्रकरण, स्थान या समाख्या से विरोध के पांच प्रकार हो सकते हैं । लिंग-सम्बन्धी विरोध की चर्चा ऊपर हो चुकी है। लिंग एवं वाक्य में विरोध के चार प्रकार होंगे, या तीन साधनों में प्रत्येक के साथ विरोध
३२. निवेशनः संगमनो वसूनामित्यन्द्रया गार्हपत्यमुपतिष्ठते । मंत्रा० सं० (३०२१४ ) | यह मन्त्र जयन आया है । कुछ लोगों के मत से ( यथा -- भामती, वेदान्तसूत्र, ३।३।२५ ) ऐन्द्री मन्त्र यह है ' कदाचन स्तरीरसि नेन्द्र सरसि दाशुषे । (ऋ० ८५११७ एवं बाज० सं० ८।२ ) । इसका प्रयोग अग्निहोत्र ( महोपस्थान) में होता है । पू० मी० सू० ( ३।३।१४ ) में 'श्रुति' एवं 'लिंग' शब्द का पारिभाषिक अर्थ किया गया है। सामान्यतः श्रुति का अर्थ होता है वेद या वेद-वचन (मूल) । किन्तु यहाँ पर श्रुति एवं लिंग का अर्थ क्रम से 'निरपेक्षो रवः श्रुतिः' एवं 'शब्दसामर्थ्यं लिंगम्', अर्थात् वैदिक शब्द या उक्ति (वचन) जो स्वतन्त्र ( निरपेक्ष) होती है ( अर्थात् जिसके लिए किसी मध्यवर्ती पद की आवश्यकता नहीं पड़ती) एवं लिंग का तात्पर्य है शब्दों की अभिव्यंजना-शक्ति । ये दोनों परिभाषाएँ अर्थसंग्रह में दी हुई हैं- 'यत्तावच्छन्दस्यार्थमभिधातुं, सामर्थ्यं तल्लिंगम् यदर्थस्याभिधानं शब्दस्य श्रवणमात्रादेवागम्यते स श्रुत्यावगम्यते । श्रवणं श्रुतिः । शबर ( ३।३।१३, पृ० ८२५ ) ; मिलाइए पाणिनि 'कर्तुरीप्सिततमं कर्म' ( १२४१४६), 'कर्त. करणयोस्तृतीया' (२।३।१८ ) । 'ऐन्द्रधा' शब्द तृतीया (करण कारक ) में है अतः वह 'करण' का अर्थ या भाव प्रकट करता है, किन्तु गार्हपत्य कर्म कारक में है अतः यह हठात् प्रकट करता है कि यह उपस्थान में प्रधान है।
३३. गुणाद्वाप्यभिधानं स्यात्सम्बन्धस्याशास्त्र हेतुत्वात् । ( ५० मी० सू० ३।२०४ ) ; शबर, 'भवति हि गुणाद-यभिधानम् । यथा सिंहो देवदत्तः इति । एवमिहाप्यनिन्द्रे गार्हपत्य इन्द्रशब्दो भविष्यति । अस्ति चास्येन्द्रसादृश्यम् । यथैवेन्द्रो यज्ञसाधनमेवं गार्हपत्योपि । अथवेन्दतेरैश्वर्य-कर्मण इन्द्रो भवति । भवति च गार्हपत्यस्यापि स्वस्मिन् कार्य ईश्वरत्वम् |'; देखिए भामती ( वे० सू० ३।३।२५ पर)।
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