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धर्मशास्त्र का इतिहास
मीमांसा-नियम ऐसा है कि जब किसी वचन के किसी अंश के अर्थ के विषय में कोई सन्देह हो तो उस वचन के शेष भागों पर निर्भर रहकर उसका निराकरण किया जाता है । देखिए तै० ब्रा० (३।२।५।१२) वाला उदाहरण, यथा--'अक्ता: शर्करा उपदधाति, तेजो वै धृतम् ।' 'वह लेपित कंकड़ रखता है, वास्तव में धी दीप्तिमान् है।' किस वस्तु से कंकड़ पर लेप लगाया जाता है ? इस सन्देह का निराकरण वाक्य के शेष अंग से हो जाता है, वह घी है, जिससे कंकड़ पर लेप लगाया जाता है (पू० मी० सू० १।४।२४) । मीमांसा वैदिक वचनों में मतभेद (या विरोध) उठाने का घोर विरोध करती है, इसी से जब कोई और चारा नहीं रह जाता तभी वह विकल्प की अनुमति प्रदान करती है। देखिए गत अध्याय में विकल्प-सम्बन्धी विवेचन । एक दूसरा सामान्य नियम यह है कि एकवचन में बहुवचन सन्निहित रहता है। मीमांसा में इसे 'ग्रहैकत्वन्याय' (पू० मी० 'सू० ३।१।१३-१५) कहा जाता है । ज्योतिष्टोम यज्ञ में देवताओं को सोम से पूर्ण कतिपय ग्रह (पात्र या कटोरे या प्याले) दिये जाते हैं और तीन सवनों (प्रातः, मध्याह्न, सायं सोम से रस निकालने) पर पिये जाते हैं । श्रुति में आया है-'दशापवित्रण ग्रहं सम्माष्टि' अर्थात् सफेद ऊन से बने झाड़न से या शोधनी से वह ग्रह को पोंछता है (स्वच्छ करता है)।' दर्शपूर्णमास में ऐसा कहा गया है--'वह पुरोडाश (परोठा या रोट या रोटी) के चतुर्दिक् एक अग्निकाष्ठ या अंगार या मशाल (उल्का) ले जाता है ।' अब प्रश्न यह है कि क्या एक ही ग्रह (क्योंकि 'ग्रह' शब्द आया है) स्वच्छ करना है तथा क्या एक ही पुरोडाश के चारों ओर मशाल ले जाना है या कई ग्रहों तथा पुरोडाशों से मतलब है ? स्थापित निष्कर्ष तो यह है कि सभी पात्रों (प्यालों) को स्वच्छ करना है तथा सभी पुरोडाशों के चतुर्दिक अंगार घुमाना है। यहाँ एकवचन पर ही नहीं आरूढ रहना है। इसी से कुमारिल तथा अन्य लोगों द्वाराएक सामान्य नियम निकाला गया है कि अनुवाद्य या उद्दिश्यमान के विशेषण की ओर, जिसके विषय में पहले से ही कुछ (विधेय) कहा जाता है, संकेत नहीं किया जाता और न उस पर आरूढ रहा जाता है। धर्मशास्त्र ग्रन्थों में इस बात पर निर्भर रहा जाता है । याज्ञ० (२।१२१) में आया है कि पितामह द्वारा प्राप्त भूमि, सम्पत्ति (चाँदी, सोना आदि) आदि पर पिता एवं पुत्र का बराबर भाग होता है। यहाँ पितामह' शब्द पर ही नहीं आरुढ रहना है, वही नियम प्रपितामह द्वारा प्राप्त भूमि एवं सम्पत्ति पर भी लागू होता है, जैसा कि व्यवहारमयख में आया है । इसी प्रकार नारद-स्मृति (१६॥३७) में आया है-'अपृथक् भाइयों की धार्मिक पूजा (त्रिया-वर्म) समान
३. सन्दिग्धेष वाक्यशेषात् । पू० मी० सू० (१।४।२४)। विषयवाक्य यह है :--'अक्ताः शर्करा उपदधाति तेजो व घृतम्' (त० ब्रा० ३।२।५।१२) । मिलाइए मैक्सवेल (पृ. २६); 'प्रत्येक वाक्य के शब्दों को व्याख्या इस प्रकार होनी चाहिए कि वे अन्य व्यवस्थाओं की संगति में बैठ जायें ।'
४. देखिए मैक्सवेल (१६५३ का १०वा संस्करण), पृ० ३४६ जहाँ पुंल्लिग शब्दों में स्त्रीलिंग तथा एकबचन में बहुवचन तथा इनके विपरीत रूप की ओर निर्देश है।
५. ३।४।२२ पर टुप्टीका की टिप्पणी इस प्रकार है-'उद्दिश्यमानस्य विशेषेणमविवक्षितमिति स्थितमेव' एवं १०।३।३६ पर टिप्पणी यों है-'उद्दिश्यमानस्य च संख्या न विवक्ष्यते ग्रहस्येव ।'
६. व्यवहारममूख में आँया है--'वस्तुतस्तु पितामहपदमविवक्षितम् । अन्यथा प्रपितामहाद्युपात्ते सदृशस्वाम्यस्याभावप्रसक्तेः । अनुवाद्यविशेषणत्वाच्च' (पृ० २६)। 'अनुवाद्य' का अर्थ वही है जो उद्दिश्यमान या उद्देश्य (विषय या कर्ता जिसके बारे में कुछ अर्थात् विधेय कहा जाता है) का है । 'अत्र अविभक्तानामित्येवोद्देश्यसमर्पकम् । भ्रातृणामिति तु तद्विशेषणत्वादविवक्षितम्' (व्य० म०, पृ० १३२) । मेधातिथि (मन २०२६) ने कहा है-'म च
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