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धर्मशास्त्र का इतिहास है।' शबर ने पुन: कहा है (१।३।३०) कि वेद एवं प्रचलित प्रयोग में शब्द एक-से हैं और उनके अर्थ भी एक-से ही हैं ।१४
वैदिक अग्नियों की स्थापना के विषय में तै० ब्रा० (१।११४) एवं आप० श्री० सू० (५।३।१८) ने तीनों वर्गों के लोगों के लिए विभिन्न ऋतुओं की व्यवस्था की है और ऊपर से जोड़ दिया है कि रथकार को वर्षा ऋतु में वैदिक अग्नियाँ रखनी चाहिए । अब प्रश्न यह उठता है कि क्या इन वचनों में प्रयुक्त शब्द 'रथकार' उस जाति के किसी सदस्य का द्योतक है (अर्थात् क्या उसे लौकिक अर्थ में लिया जाय) या यह उस व्यक्ति का द्योतक है जो किसी भी वर्ण का हो किन्तु वह रथों का निर्माण करता है (पारिभाषिक अर्थ में) स्थापित निष्कर्ष यह है कि लौकिक अर्थ ही ग्रहण करना चाहिए, व्यत्पत्ति मलक अथवा पारिभाषिक अर्थ नहीं (पू० मी० सू० ६।११४४-५०) । रथकार के विषय में आधार (वैदिक अग्नियों की स्थापना) का मन्त्र है 'ऋभूणां त्वा' (तै० ब्रा० १।१।४।८) । यद्यपि रथकार तीन उच्च वर्णों का व्यक्ति नहीं था, किन्तु वह उस मन्त्र का उचारण कर सकता था, क्योंकि श्रुति ने स्पष्ट रूप से उसके लिए व्यवस्था की है किन्तु वह उपनयन संस्कार नहीं कर सकता था। पू० मी० सू० (६।१।५०) ने तै० ब्रा० एवं आप० श्रौतसत्र में उल्लिखित 'रथकार' को जाति का द्योतक माना है जिसे सौधन्वन कहा जाता है जो न तो शद्र है और न तीन उच्च वर्गों में परिगणित है, प्रत्युत वह उनसे थोड़ा हेय है । देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड २, पृ० ४५-४६ । संस्कारकौस्तुभ (पृ० १६८) ने तर्क उपस्थित किया है कि यदि एक बार हिन्दू-विधवा को गोद लेने का अधिकार दे दिया गया तो केवल यह तथ्य कि वह सामान्य रूप से वैदिक मन्त्रों के उच्चारण की अधिकारी नहीं है, उसे उस अधिकार से वंचित नहीं कर सकता और ऐसी धारणा रखना सम्भव है, जैसा रथकार के विषय में कहा गया है। अर्थात् वह किसी बच्चे को गोद लेते समय किसी विशिष्ट वेद मन्त्र का उच्चारण कर सकती है । तै० सं० (४।५।४।२) ने कतिपय शिल्पियों अथवा कर्मकारों का उल्लेख किया है, यथा--तक्ष, रथकार, कुलाल, कर्मार आदि । अथर्ववेद (३।५।६) एवं वाज० सं० (३०।६ 'मेधाय रथकारं धैर्याय तक्षाणम्') से प्रकट होता है कि उन दिनों समाज में रथकार की स्थिति अच्छी थी।
शब्द को उसके उस अर्थ की छाया (या संदर्भ) में समझना चाहिए जो उपस्थित या प्रस्तुत क्रिया के समीचीन हो । उदाहरणार्थ, श्रुति का कथन है-'वह स्रुव से काटता है, वह चाकू से काटता है, वह हाथ से काटता है' (सभी स्थानों में क्रिया 'अवद्यति' ही है। प्रश्न यह है—क्या सभी प्रकार के हविपदार्थ चाहे वे तरल हों या अद्रव (कठोर या कड़े), या वे मांस के रूप में हैं या अन्य 'द्रव्यों के रूप में, क्या स्रव से ही काटे जायँ ? या व्यक्ति को उस हवि (द्रव्य) के अनुरूप ही किसी यन्त्र का उपयोग करना चाहिए ? यथा--घृत पात्र से स्रुव द्वारा निकाला और दिया जाता है, मांस चाकू से काटा जताा है और तब अग्नि में डाला जाता है तथा कठिन या मोटी वस्तुएँ (यथा-समिधा) हाथ द्वारा अग्नि में डाली जाती हैं। निष्कर्ष यह है कि हवि के प्रकार के अनुरूप ही उसका प्रदान किया जाता है । इसे ही 'सामर्थ्याधिकरण' (पू० मी० सू० १।४।२५) कहा जाता है ।१५ व्यवहारमयूख ने पितामह द्वारा व्यवस्थित दिव्यों की
१४. य एव लौकिकाः शब्दास्त एव वैदिकास्त एवंषामा इति । शबर (११३।३०) .
१५. अर्थाद्वा कल्पनैकदेशत्वात् । पू० मी० सू० (१।४।२५); शबर ने उद्धृत किया है : 'स्रवेणावति, स्वधितिनावद्यति हस्तेनायद्यति, इति श्रूयते । कि नुवेणावदातव्यं सर्वस्य द्रवस्य संहतस्य मांसस्य च । तथा स्वधितिना
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