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धर्मशास्त्र का इतिहास
ब्रह्मचर्यमतुल्यत्वात्')।' पत्नी स्नान करती है और ऐसे कर्म करती है, यथा--अञ्जन लगाना, आचमन करना
और जब तक प्रातःकालीन या सायंकालीन अग्निहोत्र चलता रहता है, मौन धारण करना । दर्शपूर्णमास तथा अन्य यज्ञों में उसे योक्त्र (मंज के त्रिसूत्र) से अपनी कटि को मेखला के रूप में बाँधे रहना पड़ता है । उसे मन्त्र के साथ पात्र में घृत को देखना पड़ता है और वह मन्त्र है 'महीनां पयोस्योषधीनां रसोऽसि अदब्धेन त्वा चक्षपाध्वेक्षे सप्रजास्त्वाय' अर्थात् 'आप गौओं के दूध हैं, औषधियों के रस हैं, अच्छी सन्तान की प्राप्ति के लिए मैं निनिमेष दृष्टि से देख रही हूँ' (तै० सं० २।१०।३) । इसके पूर्व कि पति पवित्र अग्नियों को स्थापित करे, पत्नी को अपने पिता या पति से यज्ञों में कहे जाने वाले मन्त्रों को सीख लेना चाहिए (देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड २, पृ० १०४१, पाद-टिप्पणी)। क्रमश: वैदिक यज्ञों में पत्नी की महत्ता समाप्त हो गयी और वह मात्र दर्शक रह गयी, वह यजमान (अपने पति) एवं पुरोहित द्वारा किये जाने वाले सभी कृत्यों को केवल घण्टों देखती रहती है।
वैदिक यज्ञों के विषय में स्त्रियों के अधिकारों पर उपर्युक्त प्रतिबन्धों के रहते हुए भी स्मृतियों ने स्त्रियों के लिए कुछ नियम बना दिये हैं, किन्तु वहाँ वचन पुंल्लिग में रखा गया है । उदाहरणार्थ, मनु,० (१११६३) ने व्यवस्था दी है कि किसी ब्राह्मण , क्षत्रिय एवं वैश्य को सुरापान नहीं करना चाहिए । मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२५६) के मतानुसार यह निषेध तीन उच्च वर्गों के सदस्यों की पत्नियों के लिए भी है।
पू० मी० सू० में आया है कि विधिवाक्य में किसी शब्द के लिंग एवं वचन पर कुछ विषयों में ध्यान देना चाहिए और उस पर आरूढ भी होना चाहिए। उदाहरणार्थ, पू० मी० सू० (४।१।११-१६) में ऐसा स्थापित है कि ज्योतिष्टोम् में बलि दिया जाने वाला अग्निषोमीय पशु एक ही है जैसा कि 'यो दीक्षितो यद् अग्निषोमीयं पशुमाल भति (जो व्यक्ति दीक्षा ले चुका है और अग्नि एवं सोम को पशु की बलि देता है) नामक वचन से स्पष्ट है । अश्वमेध के प्रसंग में जो ये शब्द आये हैं—'वसन्ताय कपिजलानालभते ग्रीष्माय कलविङकान. . .' (वह वसन्त ऋतु के लिए कपिजलों की बलि देता है) वहाँ बलि दिये जाने वाले कपिञ्जल पक्षी केवल तीन हैं (एक या दो नहीं और न तीन से अधिक)। इसी प्रकार इस उक्ति
६. तस्मास्सवं यजमानेन कर्त्तव्यम् । आहत्य विहितं पल्या च । टुप्टीका (६॥१॥ २४ पर, पृ० १३७६) ।
१०. कात्यायनश्रौतसूत्र (४।१३) की टीका में पद्धति की टिप्पणी यों है : 'उपवेशन-व्यतिरिक्तं पत्नी किमपि न करोतीति सम्प्रदायः । तच्च साधुतरम् । विद्वत्तया पुमानेव कुर्यादविदुषीतरा। वेदाध्ययनशून्यत्वात् । प्रतिषिद्धं हि तत्स्त्रियः ॥' शास्त्रदीपिका (६।१।२४)
११. 'वसन्ताय कपिञ्जलानालभते ग्रीष्माय कलविङकान्...आदि; यह वाज० सं० (२४।२०) एवं मंत्रा० सं० (३॥१४॥१) में आया है। इसे पू० मी० सू० (११३१॥३१-४६) में कपिञ्जलन्याय कहा जाता है। 'कपिञ्जालान' में बहुवचन है और कम-से-कम तीन कपिञ्जलों की व्यवस्था है। सहस्रों कपिजलों की बलि से अधिक फल नहीं प्राप्त होगा, क्योंकि केवल एक ही व्यवस्था दी हुई है न कि कतिपय अन्य संख्याओं की व्यवस्था। शास्त्रदीपिका में आया है : 'यो हि त्रीनालभते यश्च सहस्रं तयोरुभयोरपि बहुत्वसम्पादनमविशिष्टम्।... निवृत्तव्यापार च विधौ, न हिस्यादिति निषेध शास्त्रं प्रवर्तत इत्यधिकानालम्भः । इसकी ओर पराशरमाधवीय (१।२।२८१) में संकेत है, यथा 'प्राणायामैरिति बहुवचनस्य कपिञ्जन्यायेन त्रित्वे पर्यवसानात् त्रिभिः प्राणायामः शुध्यति इत्यर्थः।' मिलाइए पू० मी० सू० (४१११११); 'तथा च लिगम्' पू० मी० सू० (४११।१७) । ते० सं० (२।१।२।५) में यह वचन है : 'वसन्ते प्रातराग्नेयी कृष्णनीवीमालभेत ग्रीष्मे मध्यन्दिने संहितामन्त्री शरय.
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