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धर्मशाल का इतिहास . (२।१२३, पितुरूवं विभजतां माताप्यशं समं हरेत) की टीका में लिखते हुए व्यास की उक्ति के आधार पर 'माता' शब्द के अन्तर्गत 'विमाता' को भी रखा है। मिताक्षरा (याज्ञ० २११३५) ने रिक्य की प्रतिबन्धनीयता की चर्चा करते हए पत्नी, पूत्रियों, माता-पिता, भाइयों, उनके पूत्रों के ऋम को उपस्थित किया है और व्यवस्था दी है कि सर्वप्रथम सहोदर भाई दाय पाते हैं, उनके अभाव में सौतेले भाई लोग, उनके अभाव में भाई के पुत्र । व्यवहारमयूख (पृ० १४२) इससे मतैक्य नहीं रखता और कहता है कि 'भ्राता' शब्द का मुख्य अर्थ है सौतेला भाई, इसका गौण अर्थ ही भाई' है ; एक ही वाक्य में एक ही शब्द को दो अर्थों में प्रयुक्त नहीं करना चाहिए, अत: सहोदर भाई के अभाव में उसका पुत्र ही दाय पाता है (न कि सौतेला भाई, जैसा कि मिताक्षरा में आया है) । शब्द का मुख्य अर्थ 'अमिधा' से प्राप्त होता है, गौण अर्थ 'लक्षणा' से और कभी-कभी तीसरा अर्थ व्यञ्जना से प्राप्त होता है ।१८ ये ही एक शब्द की तीन वृत्तियाँ (क्रियाएँ अथवा कर्म) कही जाती हैं।
शब्दों की व्याख्या के लिए निर्णीत नियमों में एक पू० मी० सू० (१।३।८-६) में पाया जाता है। शबर ने शब्दों के तीन दृष्टान्त दिये हैं, यथा-न्यवों से बना चर, सूअर (वराह) के चर्म से बनी पादुकाएँ तथा वेतस से बनी चटाई। यव, वराह एवं वेतस शब्द कछ लोगों द्वारा श्रम से 'प्रिय' (पिप्पली), कौआ एवं जम्बू (काली वैर) के अर्थ में लिये जाते हैं। प्रथम दृष्टि में लगता है कि इन शब्दों को दोनों में से किसी भी अर्थ में प्रयुक्त किया जा सकता है। सिद्धान्त यह है कि इन शब्दों को उसी अर्थ में प्रयोग करना चाहिए जिस अर्थ में वेद (या शास्त्र) या शिष्ट लोग उन्हें प्रयुक्त करते हैं, अर्थात् जहाँ शब्दों के कई अर्थ हों वहाँ विद्वान् आर्य लोगों के प्रयोग का अनुसरण करना चाहिए ।१९ कुमारिल ने बहुत-रो दृष्टान्तों के
१८. तन्त्रवार्तिक (पृ० ३५४, १।४।१२ पर) के अनुसार लक्षणा एवं गौणी में थोड़ा-सा अन्तर देखिए 'अभिधेयाविनाभते प्रतीतिर्लक्षणष्यते। लक्ष्यमाण गर्योगादवत्तरिष्टा त गौणता । वनित्वलक्षिता ङ्गल्यादिगम्यते। तेन माणव के बुद्धिः स्रादृश्यादुपजायते॥ 'गंगायां घोषः' लक्षणा है (गंगातीरे घोषः), है (अग्निर्माणवकः (लड़का अग्नि है) गौणीवृत्ति का उदाहरण है (उभयनिष्ठ गुण की प्राप्ति, अर्थात् दोनों में किसी एक गुण का अस्तित्व) गौणी लक्षण का एक प्रकार मात्र है। लक्षणा का बहुधा प्रयोग होता रहता है। लड़के में अग्नि के कुछ गुण विद्यमान रहते हैं, यथा अति पिंगल रंग, आदि, अतः यहा पर 'अग्नि' लाक्षणिक ढंग से लड़के लिए भी प्रयुक्त हुआ है।
१६. तेष्वदर्शनाद्विरोधस्य समा विप्रतिपत्तिःस्यात् । पू० मी० सू० (११३८); यवमयश्चरुः वाराही उपानहौ, वैतसे कटे प्राजापत्यान् सञ्चिनोति इति यववराहवेतसशब्दान समामनन्ति । तत्र केचिद्दीर्घशकेषु यवशब्दं प्रयुञ्जते केचित्प्रियङगुषु । वराह शब्द-केचित्सूकरे केचित्कृष्ण शकुनौ । वेतसशब्दं केचिद्वञ्जुलके केचिज्जम्ब्वाम् । शबर । सिद्धान्तसूत्र यों है : 'शास्त्रस्था वा तनिमित्तत्वात । पू० मी० सू० (१३३६); शबर ने व्याख्या की है : 'यः शास्त्रस्थानां स शब्दार्थः के शास्त्रस्थाः, शिष्टाः तेषामविच्छिन्ना स्मृति: शब्देषु वेदेष च। भामती (वे० सू० ३।३।५२) ने इस पर निर्भर किया है और कहा है कि भारत में आर्यों के मध्य जो अर्थ दिया जाता है वही आन्ध्रों के मध्य भी (शब्द के लिए) रहता है (यथा 'राजन शब्द एवं उसका अर्थ) । 'पोलु' शब्द के विषय में गौतम (११२२) ने व्यवस्था दी है कि क्षत्रिय या वैश्य ब्रह्मचारी को अश्वत्थ (पीपल) या पील वृक्ष का दण्ड ग्रहण करना चाहिए (अश्वत्थपैलवो शेषे), किन्तु मनु० (२०४५) ने वैश्य ब्रह्मचारी के लिए पोल या या उदुम्बर वृक्ष के दण्ड की व्यवस्था की है। अमरकोश में आया है कि पीलु का अर्थ वृक्ष एवं हाथी दोनों है।
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