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धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मीमांसासिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम
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'अन्विताभिधानवादी' कहे गये हैं । किन्तु कुमारिल एवं उनके अनुयायीगण यह कहते हैं कि शब्दों के अपनेअपने पृथक् अर्थ होते हैं और जब वे किसी वाक्य में संयुक्त होते हैं तो पहले से भिन्न अर्थ वाले हो जाते हैं। कुमारिल तथा उनके अनुयायियों को 'अभिहितान्वयवादी' कहा जाता है । प्रस्तुत लेखक ने साहित्यदर्पण (१, २, १०) की टिप्पणी (पृ० ८६-८८) में इन दो संज्ञाओं की व्याख्या उपस्थित की है (देखिए सन् १६५६ वाला संस्करण)।
अब हम वाक्य की व्याख्या करेंगे। ऋग्वेद एवं सामवेद छन्दोबद्ध हैं, अत: सामान्य ढंग से उनमें वाक्य के रूप में क्या है, यह जानना कटिन नहीं है। किन्तु कृष्ण यजुर्वेद का अधिकांश गद्य में है। अत: पू० मी० स० (२।१।४६) ने वाक्य की परिभाषा की है कि जब कई शब्द किसी एक प्रयोजन (उद्देश्य) की पूर्ति करते हैं, किन्तु यदि उन शब्दों में एक या कुछ शब्द शेष शब्दों से पृथक् कर दिये जायें, तो आगे के शब्द (अर्थात् शेष शब्द ) अपूर्ण रह जाते हैं और प्रयोजन (उद्देश्य) की पूर्ति नहीं कर पाते और पृथक् किये गये शब्दों की आवश्यकता का अनुभव करते हैं, अत: वे सभी शब्द एक वाक्य बनाते हैं। इसका उदाहरण एक मन्त्र है--'देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यामग्नये जुष्टं निर्वपामि' (तै० सं० १.१।४।२ : मैं तुम्हें, जो अग्नि को प्रिय है, देव सविता की आज्ञा से, अश्विनों की वाहुओं से, पूषा के हाथों से निर्वाप देता हूँ अर्थात् अर्पण करता ३)२१ यह एक वाक्य है, जिसका प्रयोजन है निर्वाप। वाक्य की अन्य परिभाषाओं के लिए देखिए साहित्यदर्पण (२।१) पर प्रस्तुत लेखक की टिप्पणियाँ (प० ३४)। अर्थ के बोध के साथ एक वाक्य में शब्दों को रखने के लिए 'आकांक्षा', 'योग्यता' एवं 'सन्निधि' की, विशेषत: आकांक्षा की आवश्यकता होती है। उदाहरणार्थ, 'शंकराचार्य (वे० स०४३)का कथन है कि आकांक्षा के विना इसका वोध या प्रत्यक्ष नहीं हो पाता कि शब्द वाक्य बनाते हैं। 'एकवाक्यता' शब्द वेदान्तसूत्र (३।४।२४) में आया है और बताता है कि आकांक्षा दो रूपों वाली होती है, यथा--व्याकरण वाली एवं मानस (अर्थात् व्याकरणजन्य एवं मनोवैज्ञानिक)। किसी शब्द को सुनकर या पढ़ कर सुनने वाला या पढ़ने वाला किसी पूर्ण अभिप्राय (बोध) की प्राप्ति के लिए किसी अन्य विचार या शब्द को जानने की इच्छा रखता है। जब कई एक वाक्य, जिनमें प्रत्येक अपने भाव को व्यक्त करता है. एक-साथ आ
२१. अर्थकत्वादेकं वाक्यं साकांक्षं चेद्विभागे स्यात्। पू० मी० सू० (२।१।४६); अत्र प्रश्लिष्टपठितेषु यजुःषु कथमवगम्येत, इयदेकं यजुरिति । यावता पदसमूहेनेज्यते तावान्पद्समूह एक यजुः । कियता चेज्यते । यावता विद्याया उपकारः प्रकाश्यते तावत । वक्तव्याद् वाक्यमित्युच्यते। तस्मादेकार्थः पदसमूहो वाक्यं यदि च विभज्यमानं साकाङ्क्षं पदं भवति । किमदाहरणं देवस्य त्वा सवितुः प्रसवं इति। शबर। मन्त्र यह है : 'देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यामग्नये जुष्टं निर्वपामि (तै० सं० २०४।२; काठक० ११४) और 'देवस्य. . .निर्वपामि' तक एक वाक्य है । और देखिए शबर (१।२।२५ पर, यथा-तद्भूतानां क्रियार्थेन समाम्नायोऽर्थस्य तन्त्रिमित्तत्वात् ) । दोनों सूत्रों में 'अर्थ' शब्द का अर्थ है प्रयोजन । न्यायसुधा ने 'अर्थ' शब्द को 'अभिधेय' (अभिप्राय, भाव आदि) के रूप में लिया है, जिससे कि सूत्र को और व्यापकता प्राप्त हो, किन्तु शबर में इसे यजर्वेद के वचनों तक ही सीमित रखा है और प्रतिपादित किया है कि 'अर्थ' प्रयोजन का द्योतक है।
और देखिए 'थावन्ति पदान्येक प्रयोजनमभिनिवर्तयन्ति तावन्त्येकं वाक्यम् । शबर (पू० मी० सू० २। २।२७, पृ० ५६०) । कात्यायन श्रौतसूत्र (१।३।२) में ऐसा ही सूत्र आया है, यथा-'तेषां वाक्यं निराकाङक्षम्'। टीका ने 'तेषां' को 'यजुषाम्' के रूप में लिया है।
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