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धर्मशास्त्र का इतिहास __ आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।४।१२।१०) से पता चलता है कि उसके बहुत पहले से ऐसी धारणा घर कर गयी थी कि बहुत से वैदिक वचन नष्ट हो चुके हैं या अब उपलब्ध नहीं हैं । ऐसा आया है- 'कृत्यों की उद्घोषणा ब्राह्मण ग्रन्थों में हुई है, किन्तु वास्तविक शब्द (ब्राह्मण वचनों के शब्द ) विलीन हो गये हैं और कृत्यों के सम्पादन से (प्रयोग से) ही उनका अनुमान लगाया जाता है ।
इस सिद्धान्त पर निर्भर रहना कि स्मृतियाँ उन वैदिक वचनों पर आधृत हैं जो नष्ट हो चुके हैं (या अब नहीं मिलते) आपत्तिग्रस्त है, क्योंकि इसी तर्क पर बौद्धों के समान अन्य पाषण्डी अपने सिद्धान्तों के लिए प्रमाण उपस्थित कर सकते हैं । इसी से कुमारिल ने एक अन्य सिद्धान्त रखा है जो यों है-- 'स्मृतियों का आधार ऐसे वचन हैं जो आज के वैदिक वचनों में नहीं पाये जाते, क्योंकि वैदिक शाखाएँ चतुर्दिक, बिखरी पड़ी हैं।
हमने स्मृतियों के विषय में वे सारी बातें जो मीमांसकों के मतों पर आधृत हैं, इस महाग्रन्थ के तृतीय खण्ड (जिल्द) में निरूपित कर दी हैं । अत: केवल थोड़े से उदाहरण एवं निष्कर्ष यहाँ उल्लिखित किये जा रहे हैं। स्वयं शबर ने प्रस्तावित किया है कि पू० मी० सू० १।३।४ को एक पृथक अधिकरण होना चाहिए, और एक महत्वपूर्ण उक्ति उन्होंने कही है-'जहाँ पर किसी कार्य के लिए कोई दृष्ट अर्थ पाया जा सके तो किसी को वहाँ अदृष्ट अर्थ या वैदिक वचन का अनुमान नहीं लगाना चाहिए । शबर द्वारा पू० मी० सू० (१॥३॥३-४) के निरूपण को शास्त्र दीपिका ने बड़े स्पष्ट एवं परिष्कृत ढंग से यों रखा है-वे स्मृति नियम जो श्रुति-नियम के विरोध में आते हैं और ऐसी स्मृति-व्यवस्थाएं जिनमें स्पष्ट रूप से लौकिक अर्थ प्रदर्शित हो, न तो प्रामाणिक होते हैं और न आवश्यक , किन्तु स्मृति के शेष वचन प्रामाणिक होते हैं। यह सिद्धान्त आप० घ० सू० (१।४।१०।१२) के उस सिद्धान्त से पुराना है, जो यों है-'जहाँ व्यक्ति प्रीति ( आनन्द ) के लोभ से (अर्थात् वैसा करने पर आनन्द का अनुभव करने से) कार्य करते हैं वहाँ शास्त्र नहीं पाया जाता'। कुमारिल शबर से इस विषय में मेल नहीं खाते । उनका कथन है कि दृष्ट एवं अदृष्ट या आध्यात्मिक अर्थ बहुधा एक-दूसरे से दुस्तर रूप से मिश्रित होते हैं। धान (चावल) पर से भूसी निकालना एक दृष्ट उद्देश्य या अर्थ रखता है, क्योंकि वैसा करने से चावल भली भाँति उबल जायेगा और पका हुआ चावल यज्ञ में आहुति का काम करेगा। इस कार्य में एक दृष्ट अर्थ है और तब भी यह कार्य वेद द्वारा व्यवस्थित है। बहुत ही आकर्षक एवं तीखे शब्दों से युक्त तथा अनुकूल वचन द्वारा, सर्वप्रिय दृष्टिकोण से परिपूर्ण तथा ऐसे ढंग से कथित कि दुष्ट को भी उसका प्रिय मिले, कुमारिल ने संस्कृत के सभी ग्रन्थों की जाँच की है और वेद से उनके सम्बन्ध एवं सामान्य भौतिक अनुभव से तुलना करके उनकी उपयोगिता की परीक्षा की है। यहाँ पर केवल थोड़े-से वाक्य दिये जायेंगे। अत: उन्होंने व्यवस्था दी है कि सभी स्मृतियाँ अपनी उपयोगिता की दृष्टि से प्रामाणिक
(११३१, पृ० १६४)। इसे विश्वरूप ने याज्ञ० (११७, पृ० १४) की टीका में बिना नाम दिये उचत किया
५५. ब्राह्मणोक्ता विधयस्तेषामुत्सन्नाः पाठाः प्रयोगादनुमीयन्ते। यत्र प्रीत्युपलब्धितः प्रवृत्तिर्न तत्र शास्त्रमस्ति । आप० ध० सू० (१।४।१२।१०-११)।
५६. यदि तु प्रलोनशाखामूलता कल्प्येत । ततस्तासां बुद्धादिस्मृतीनामपि तद्वारा प्रामाण्यं प्रसज्यते। तन्त्रवार्तिक (११३६१, पृ० १६३)।
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