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पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त
१७३ जिन्हें अन्धे लोग नियमानुकल नहीं कर सकते (जैमिनि, ६।१।४२); पांचों पाण्डवों ने एक ही नारी (द्रौपदी) से विवाह किया; युधिष्ठिर ने वाक्यछल से अपने गुरु द्रोण की मृत्यु करायी; कृष्ण एवं अर्जुन महाभारत में मद्य पिये हुए वर्णित हैं (उभौ मध्वासवक्षीबौ दृष्टौ मे केशवार्जुनौ, उद्योगपर्व ५६३५) और उन्होंने अपने मामा की पुत्रियों से विवाह किया था; राम ने सीता की स्वर्ण-प्रतिमा बनाकर अश्वमेध यज्ञ किया था ।
कुमारिल ने इन कतिपय दोषों के मार्जन के सिलसिले में जो तर्क दिये हैं वे उनकी महान् विदग्धता को प्रदशित करते हैं, कहीं तो उन्होंने तपों की चर्चा की है (यथा, विश्वामित्र के उदाहरण में) और कहीं पर उदाहरण को ही भ्रामक ठहराया है (यथा, सुभद्रा के विषय में जो कृष्ण की बहिन कही गयी हैं) । ८ देखिए विस्तार के लिए इस महाग्रन्थ का खण्ड ३, प० ८४५-८४८ ।
एक मनोरंजक अधिकरण है होलाकाधिकरण (जैमिनि १।३।१५-२३)। ऐसा कहा गया है कि होलाका का प्रयोग पूर्वदेशीय लोगों द्वारा, आह्नीनैबुक का दाक्षिणात्यों तथा उदृषमयज्ञ का प्रयोग उत्तर वालों द्वारा होना चाहिए । स्थापित निष्कर्ष तो यह है कि इस प्रकार के अनुष्ठान या कृत्य सभी के लिए हैं (केवल पूर्व या दक्षिण या उत्तर वालों के ही लिए नहीं) , यदि वे पूर्व वालों या दक्षिण वालों के लिए उपयुक्त हैं तो कोई तर्क नहीं है कि वे उत्तर वालों के लिए उपयुक्त नहीं हैं। वैदिक विधियों के विषय में सामान्य नियम यह है कि वे सभी आर्यों द्वारा प्रयुक्त हो सकती हैं, इसके लिए कि उपर्युक्त अनुष्ठानों के लिए कोई नियन्त्रित वैदिक वनन है ; कोई समीचीन तर्क नहीं दिखाई पड़ता। इस बात पर पूर्व विवेचन के लिए देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड ३, पृ० ८५१-८५३ । दायभाग (याज्ञ० २।४० एवं ६।२२-२३) ने इस दृष्टान्त की ओर संकेत विया है।
धर्मशास्त्र के लेखकों द्वारा होलाकाधिकरण-न्याय का बहुधा उल्लेख हुआ है। विश्वरूप (याज्ञ० ११५३) ने सिद्धान्तसूत्र को उद्धत किया है-'अपि वासर्वधर्मः तन्न्यायत्वाद् विधानस्य' (जैमिनि १।३।१६) और यह जोड़ा
यदि कोई बात कुछ लोगों के लिए उपयुक्त मानी जाती है तो वह सभी लोगों के लिए उपयुक्त है। इस अधिकरण के वास्तविक अर्थ के विषय में मध्यकालीन लेखकों में मतैक्य नहीं है । दायभाग (याज्ञ० २।४२) में आया है कि पूर्वर्द देश के लोगों द्वारा होलाका के प्रयोग से जिस श्रुति की ओर संकेत मिलता है वह मात्र 'सामान्य श्रुति' है कि होलिका कृत्य किये जाने चाहिए । दूसरी ओर शूलपाणि के प्रायश्चित्त विवेक की टीका में गोविन्दानन्द ने कहा है कि होलाकाधिकरण से इतना ही पता चलता है कि इस व्यवहार (प्रयोग) से यह श्रुति प्रकट होती है कि 'प्राच्य लोगों को होलाका का प्रयोग करना चाहिए', किन्तु यह सामान्य रूप में यों है-'किसी देश का आचार उस देश के लोगों द्वारा पालित होना चाहिए।"
१८. आदिपर्व (२१६।१८, चित्राव संस्करण २१६३१८) ने सुभद्रा के विषय में स्पष्ट कहा है-'दुहिता बसुदेवस: वासुदेवस्य च स्वसा।' खण्डदेव के मीमांसाकौस्तुभ में आया है : 'एवमर्जुनस्य मातुलकन्यकायाः सुभद्रायाः परिण येऽपि सुभद्राया वसुदेवकन्यात्वस्य साक्षात् क्वचिदप्यभवणात् ।' (पृ० ४८, चौखम्बा संस्कृत सीरीज, १६२४)। यह एक ऐसा उदाहरण है जो इस बात का द्योतक है कि कभी-कभी कट्टर संस्कृत-लेखक अपने सिद्धान्तों की रक्षा में कछ विचित्र बातों का आश्रय ले बैठते हैं।
- ७६. तस्माद्यस्मादेवाचारात् स्मृतिवाक्यावा या श्रुतिरवश्यं कल्पनीया तयैव तद्गतस्याचारांशस्य स्मृतिपदस्य चोपपत्तेर्न तत्राधिककल्पनेति होलाकाधिकरणस्यार्थः। दायभाग (२१४२); प्राच्यहों लाका कर्तव्येति विशेषश्रुतिर्न कल्प्यते किंतु देशधर्मः कर्तव्य इति सामान्यत एव, अन्यथा देशान्तरे भाचारान्तरात् श्रुत्यन्तरकल्पनागौरवं स्मादिति होजाकाधिकरनन्यायः। बत्त्वापकौमुदी (प्रायश्चित्रविबेक, पृ० १४२)।
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