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धर्मशास्त्र का इतिहास
यदि कोई ऐसी धारणा बनाता है कि अपूर्व कोई ऐसी शक्ति है जो किसी यज्ञकर्ता में निवास करने के निमित्त आती है, तो उसकी यह धारणा उन अर्वाचीन लेखकों की भांति है जो ऐसा विश्वास करते हैं कि वास्तविक पूजा केवल पुनीत समझे जाने वाले शब्दों का बार-बार कहना नहीं है, प्रत्यत यह ऊर्ध्वगामी गति है या पूजक की आध्यात्मिक शक्ति की तीव्रता की वृद्धि का द्योतक है (देखिए डबल्यू० जेम्स का ग्रन्थ 'वेराइटीज़ आव रिलिजिएस एक्स्पीरिएंस', पृ० ४६७) ।।
(७) स्वतः प्रामाण्य : यह पहले ही कहा जा चका है प्रमाण छह हैं (किन्तु प्रभाकर के अनसार केवल पांच हैं) । पूर्वमीमांसा का कथन है कि सभी प्रत्यक्ष अपने में स्वाभाविक रूप से सप्रमाण अथवा सिद्ध हैं, उन्हें अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए बाह्य सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ती , किन्तु प्रत्यक्ष की अप्रामाणिकता (परत:) बाह्य रूप से यह प्रदर्शित कर स्थापित होती है कि प्रत्यक्ष उत्पन्न काने वाले अंग में दोष था या आगे चल कर यह कहकर कि एक विशिष्ट प्रत्यक्ष भ्रामक था, उसे स्थापित किया जाता है। प्रभाकर और आगे बढ़ जाते हैं और मत प्रकाशित करते हैं कि प्रत्येक अनुभव सप्रमाण होता है और कोई भी अनुभव भ्रामक या मिथ्या नहीं कहा जा सकता।
(८) स्वर्ग : जैमिनि, शबर एवं कुमारिल द्वारा व्यक्त स्वर्ग सम्बन्धी विचार वेद एवं पुराणों में उल्लिखित विचार से भिन्न हैं। देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड (जिल्द) ४, पृ० १६५-१६७ एवं १६८-१७१ जहाँ पर वैदिक साहित्य, महाकाव्यों एवं पुराणों में उल्लिखित स्वर्ग से सम्बन्धित सुख का वर्णन किया गया है। स्थानाभाव से हम यहाँ पर बहुत ही संक्षेप में कहेंगे। ऋग्वेद (११३।७-११) में ऋषि ने सोम से प्रार्थना की है कि वह उन्हें उस अमर लोक में रख दे जहाँ निरन्तर प्रकाश रहता है, जहाँ सभी इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है, जहाँ पर विभिन्न कोटियों के आनन्द की उपलब्धि होती है। स्वर्ग को ऐसा स्थान माना गया है जहाँ पर युद्ध लड़ने के उपरान्त वीर लोगों के जीवात्मा जाते हैं (ऋ० ६।४६।१२) । ऋ० (१०।१५४१२-४) में आत्मा से कहा गया है कि वह उन लोगों से जाकर मिल जाय जो महान् तपों से अजय्य हो गये हैं, जो युद्ध में मर गये हैं, जिन्होंने सहस्रों गायों का दान किया है, जिन्होंने सदाचार का जीवन बिताया है और जो विज्ञ ऋषि थे।
अथर्ववेद (४१३४।२ एवं ५-६) में आया है कि स्वर्ग में बहुत-सी नारियाँ हैं, खाने के लिए बहुत-से पौधे, विभिन्न प्रकार के पुष्प हैं, वहाँ घृत, मधु, सुरा, दूध, दही की नदियाँ हैं और चारों ओर कमल के सरोवर हैं । शतपथ ब्राह्मण (१४१७।१।३२-३३) में आया है कि स्वर्ग का आनन्द, पृथिवी के आनन्द का सौगुना होता है। देखिए मेकडोनेल का ग्रन्थ 'वेदिक मैथॉलॉजी' (पृ० १६७-१६८) एवं ए० बी० कीथ का ग्रन्थ 'रिलिजन एण्ड फिलासॉफी आव दि वेद' आदि (पृ० ४०३-४०६, १६२४) । यहाँ तक कि उपनिषदों ने भी स्वर्ग के आनन्द का उल्लेख किया है, यथा-छा० उप० (८१५॥३) ने ब्रह्मा के लोक में दो झीलों, सोम की बौछार करते हुए अश्वत्थ वृक्ष एवं अपराजिता नामक ब्रह्मा की नगरी का उल्लेख किया है; कौशीतकि उप० (११३ एवं ४) ने इसे बढ़ाया है और इतना जोड़ दिया है कि जो लोग स्वर्ग में पहुँचते हैं उनके स्वागत में पाँच सौ अप्सराएँ आती हैं, जिनमें एक सौ के हाथों में जयमाल, एक सौ के पास अंजन, एक सौ के पास सुगंधियाँ, एक सौ के पास वस्त्र तथा एक सौ के पास फल रहते हैं । कालिदास ऐसे कवियों ने युद्ध में मृत वीर के आत्मा के विषय में लिखा है कि जब वह स्वर्ग में पहुँचता है तो उसके पास अप्सराएँ आती हैं (रघुवंश ७।५१ : वामांगसंसवतसुरांगन: स्वं नृत्यत्कबन्धं समरे ददर्श')। पुराणों ने स्वर्ग के आनन्द का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है । देखिए ब्रह्मपुराण (२२५।६), पद्म० (२१६५।२-५), मार्कण्डेय (१०१६३-६५), जिन्होंने नन्दन वन, अप्सराओं के समूहों से युक्त विमानों, सोने के आसनों, विस्तरों, चिन्तामावों, सभी सुखों आदि का विशद उल्लेख किया है। शबर ने पू० मी० सू० (६१११)
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