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पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त
व्यावर्तक नियम है। गौतम ने व्यवस्था दी है कि ब्राह्मण को तीन उच्च वर्गों के यहाँ भोजन करना चाहिए
और उनसे दान ग्रहण करना चाहिए। हरदत्त ने इन दो नियमों को परिसंख्याविधि कहा है। आप० घ. सू० (२) ने विवाह के उपरान्त पति एवं पत्नी के लिए अचार-नियम बनाये हैं, प्रथम यह है-'दो बार (प्रातः एवं सायं) भोजन करना चाहिए । हरदत्त ने इसे परिसंख्या कहा है और अर्थ लगाया है कि तीसरी बार भोजन करना मना है (किन्तु वे दिन में दो बार खा सकते हैं और नहीं भी खा सकते हैं), किन्तु अन्य लोगों ने इसे नियम माना है, अर्थात् 'उन्हें दिन में दो बार अवश्य खाना चाहिए।'
नियमविधियाँ तीन प्रकार की होती हैं, यथा-वे जो प्रतिनिधियों से सम्बन्धित हैं, वे जो प्रतिपत्ति (अन्तिम कर्म या यज्ञों में प्रयुक्त कुछ वस्तुओं की अन्तिम परिणति) से सम्बन्धित हैं तथा वे जो इन दोनों के अतिरिक्त अन्य विषयों से सम्बन्धित हैं। ताण्ड्यब्राह्मण में आया है कि 'यदि सोम के पौधे न प्राप्त हों तो पूतीकों से रस निकाला जा सकता है' (जैमिनि (३।६।४० एवं ६।३।१३-१७) ने इस विषय पर विचार किया है और जैमिनि एवं शबर ने व्यवस्था दी है कि यदि सोम उपलब्ध न हो तो यजमान उसके स्थान पर पूतीका का उपयोग कर सकता है, अन्य किसी का नहीं, भले ही वह सोम से अधिक ही क्यों न मिलताजुलता हो । प्रतिपत्ति शब्द जैमिनि द्वारा कई सूत्रों में प्रयुक्त हुआ है (देखिए ४।२।११, १५, १६, २२) । ज्योतिष्टोम में अन्तिम स्नान (अवभृथ) के समय जल में सोम से संलग्न सभी पात्रों (सोम निकालने के उपरान्त बचा हुआ अंश अर्थात् छूछ, पत्थर, लकड़ी के दो तस्ते तथा सदों के बीच में उदुम्बर का स्तम्भ) को फेंक देना प्रतिपत्तिकम कहा जाता है (पू० मी० सू० ४।२।२२) । यह परिभाषा धर्मशास्त्र ग्रन्थों में प्रयुक्त होती है। मन्० (३।२६२-२६३) में कहा है कि पके हुए चावल के तीन पिण्डों में से, जो तीन पूर्व पुरुषों को दिये जाते हैं, यजमान की पुत्रेच्छुक पत्नी को बीच वाला (जो पितामह के लिए होता है) खा लेना चाहिए और देवल ने व्यवस्था दी है कि पिण्ड या तो ब्राह्मण को दे दिये जाने चाहिए या बकरी या गाय को खिला देना चाहिए या अग्नि अथवा जल में डाल देना चाहिए। अपरार्क० (याज्ञ० ११२५६) एवं स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० ४८६) के अनुसार पिण्डों को यही प्रतिपत्ति है। देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड ४, पृ० ४८०-४८१ । प्रतिपत्ति शब्द अर्थकर्म का विरोधी है। उदाहरणार्थ तै० सं० में हम पढ़ते हैं 'सोम पौधे को लाने के उपरान्त वह दण्ड को मैत्रावरुण पुरोहित के हाथ में देता है। यहाँ पर दीक्षा के समय दण्ड सर्वप्रथम यजमान को दिया गया था जो अब मैत्रावरुण को दिया जा रहा है जिसे वह कई प्रकार से उपयोग में लायेगा, यथ:-वह अँधेरे में उसकी सहायता से चल सकता है, जल में प्रवेश कर सकता है, गायों को रोक सकता है, साँपों को पास आने से रोक सकता है और वह स्वयं उस पर अपना भार दे सकता है या उसके सहारे चल-फिर या कूद-फांद सकता है । अत: यह प्रतिपत्ति से भिन्न है जिसमें वस्तु अन्तिम रूप से फेंक दी जाती है और पुन: उसका कोई उपयोग नहीं होता। इसका उल्लेख पू० मी० सू० (४।२।१६-१८) में हुआ है । यह (दण्ड का दिय" जाना) अर्थकर्म है और प्रतिपत्ति कर्म के विरोध में पड़ जाता है। इसका उल्लेख तै० सं० (६।१।४।२) में हुआ है (क्रीते सेमि मंत्रावरुणाय दण्ड
२७. यदि सोमं न विन्देयुः पूतीकानभिषुणुयुयदि न पूतीकानर्जुनानि च । ताण्ड्य (२३) । नियमार्थागुणधुति । पू० मी० मू० ३१६०४०; नियमार्थः क्वचिद्विधिः। पू० मी० सू० (६।३।१६); जिस पर शबर की टिप्पणी यों है : 'सोमाभावे बहुषु सदृषेष प्राप्तेष नियमः क्रियते । पूतिका अभिषोतव्या इति । तस्मात्प्रतिनिधि मुपादाय प्रयोगः कर्तव्य इति ।'
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