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धर्मशास्त्र का इतिहास
नहीं माना है और कहा है कि निषेव ही स्वयं है । सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि वे व्यवस्थाएँ, जो अदृष्टया परलोक सम्बन्धी फल वाली हैं, वर्थ होती हैं, किन्तु वे ( व्यवस्थाएँ) जो साक्षात फलदायिनी होती हैं, पुरुषार्थ कहलाती हैं।
आगे कुछ और कहने के पूर्व हमें 'यजेत' शब्द का विश्लेषण कर लेना आवश्यक है । यह शब्द वैदिक वाक्यों में प्रयुक्त है, यथा- 'स्वर्गकामो यजेत' (जो स्वर्ग की कामना करे उसे यज्ञ करना चाहिए ) । 'यजेत' शब्द में दो अंश हैं, यथा- 'यज' धातु तथा प्रत्यय । प्रत्यय के भी दो अंश हैं, यथा - आख्यातत्व ( सामान्य क्रिया रूप ) एवं लिङत्व (आज्ञा या आदेश रूप ) । आख्यातत्व को दसों लकारों में पाया जाता है किन्तु लिङत्व केवल आज्ञा ही पाया जाता है। दोनों केवल भावना को व्यक्त करते हैं । भावना का शाब्दिक अर्थ है किसी भावक की क्रिया ( व्यापार-विशेष ) जो फल की अनुकूलता का कारण है । यह भावना दो प्रकार की होती है, यथा- शाब्दी भावना एवं आर्थी भावना ( मीमांसा न्यायप्रकाश पृ० ४ - ६ ) ।
यह हमने बहुत पहले ही देख लिया है कि विधियाँ वेद के मर्म की परिचायक हैं । भावना का सिद्धान्त विधियों का हृदय है अतः यह मीमांसा के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों में परिगणित है ।
सामान्य जीवन में जब कोई किसी से कहता है- 'यह तुम्हारे द्वारा किया जाना चाहिए, तो कुछ करने के लिए प्रोत्साहन या प्रेरणा ( उत्तेजन) किसी व्यक्ति से प्राप्त होता है । किन्तु मीमांसा के मत से वेद का न तो कोई मानव और न कोई दिव्य प्रणेता है । अतः वैदिक विधि में शब्द के इच्छार्थक या आज्ञात्मक रूप से ही प्रोत्साहन ( उत्तेजन या प्रेरणा) का उदय होता है, उस आज्ञा के पीछे न तो कोई मानव है और न कोई दिव्य शक्ति या व्यक्ति है; अत: इसी से भावना को 'शाब्दी' ( अर्थात् स्वयं शब्द पर आघृत, न कि किसी व्यक्ति की इच्छा या आज्ञा या निर्देश पर आधृत ) कहा गया है। अतः शाब्दी भावना का अर्थ है किसी कर्त्ता ( यहाँ पर वेद का शब्द) की कोई विशिष्ट क्रिया जो किसी व्यक्ति द्वारा उत्पादित होती है; और यह उस अंश या तत्त्व से अभिव्यक्त होती है, जिसे हम इच्छार्थक कहते हैं । यह शाब्दी इसलिए कही जाती है, क्योंकि यह 'शब्दनिष्ठ' (वेद के शब्द में केन्द्रित ) है न कि 'पुरुषनिष्ठ' (किसी व्यक्ति में केन्द्रित ) । शाब्दी भावना में तीन तत्त्व पाये जाते हैं, यथा(१) किया के लिए कर्ता का प्रोत्साहन होता है, (२) आज्ञा या शासन ही कारण होता है तथा ( ३ ) अर्थवाद वचनों से उद्घोषित औचित्य द्वारा विधि या रीति की प्राप्ति होती है । शाब्दी भावना से आर्थी भावना का उद होता है। आर्थी भावना (जो अर्थ या फल की खोज करती है) में भी तीन तत्त्व पाये जाते हैं, यथा - ( १ ) स्वर्ग ही फल है, जिसकी प्राप्ति करनी होती है, (२) कारण या साधन या निमित्त है 'याग', (३) याग की भी एक विधि या ढंग ( इतिकर्त्तव्यता) होता है । यह सभी पू० मी० सू० (२1१1१ ), शबर के भाष्य एवं तन्त्रवार्तिक के कतिपय श्लोकों पर आधृत है। यह पूरा विवेचन हमें अपूर्व के अर्थ की ओर ले जाता है । याग अल्प समय का होता है, किन्तु स्वर्ग व्यक्ति की मृत्यु के उपरान्त प्राप्त होता है, जो याग (यज्ञ) के सम्पादन के वर्षों उपरान्त हो सकता है। तो ऐसी स्थिति में याग एवं स्वर्ग ( कारण एवं फल) में कौन-सी जोड़ने वाली कड़ी है ? यह कड़ी याग द्वारा उत्पन्न की हुई शक्ति है जो स्वर्ग की उत्पत्ति करती है ।
संक्षेप में अभिप्राय यह है- दोनों अर्थात् धातु एवं प्रत्यय मिलकर प्रत्यय ( आगम) का अर्थ प्रकट करते हैं, और इसमें भावना प्रमुख तत्त्व है, अतः यह प्रत्यय का ही अर्थ द्योतित करती है । भावशब्द बहुत है " " ।
३१. भावार्थाः कर्मशब्दास्तेभ्यः क्रिया प्रतीयेतेष हयर्थी विधीयते । पू० मी० सू० (२1१1१ ); शास्त्रदीपिका पर लिखी गयी मयूखमालिका में इसकी व्याख्या यों है— भावार्थाः भावनाप्रयोजनकाः ये कर्मशब्दाः धातवस्ते
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