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मीमांसा एवं धर्मशास्त्र
१०६ माने जाते हैं) ; (३) शेष (शेष का अर्थ है अधीन या जो दूसरे के अधीन होता है वह शेषी कहलाता है या जो दूसरे का सहायक होता है), इसका प्रयोग कैसे होता है, तथा श्रुति , लिंग, वाक्य, प्रकरण , स्थान एवं समाख्या की पारस्परिक शक्ति; (४) प्रयुक्ति (जो अपरिहार्य हो और जो कर्ता के अन्त:करण पर निर्भर हो, अर्थात् जो क्रत्वर्थ हो और पुरुषार्थ हो); (५) क्रम (श्रुति आदि पर क्रम के निश्चय के सिद्धान्त); (६) अधिकार (याग करने के अधिकारी व्यक्ति); (७) सामान्यातिदेश (आदर्श याग के विषयों का उसके परिष्कारों या परिमार्जनों तक फैलाव); (८) विशेषाति देश (पृथक्-पृथक् कृत्यों के भिन्न भागों या विषयों का विस्तार); (६) ऊह (मन्त्रों तथा संस्कारों का अभियोजन); (१०) बाध (आदर्श यागों के परिमार्जनों में कुछ विषयों को छोड़ देना); (११) तन्त्र बहुत-से कर्मों या व्यक्तियों के लिए एक विषय की उपयोगिता एवं पर्याप्तता); (१२) प्रसंग (प्रयोग का विस्तार) । प्रथम अध्याय के चार पदों में चार विषय क्रमश: विवेचित हैं, यथाविधि (प्रबोधक वाक्य या वचन), अर्थवाद (प्रशसात्मक व्याख्यात्मक वचन जिनमें मंत्र भी हैं), स्मृतियाँ (जिनमें लोकाचार एवं प्रयोग भी सम्मिलित हैं) एवं नाम (कृत्यों के नाम यथा-उद्भिद्, चित्रा)। यहाँ पर अध्यायों का विवेचन विशेष आवश्यक नहीं है। शबर ने सभी अध्यायों के निष्कर्ष उपस्थित किये हैं।३०
स्वयं पू० मी० सू० एक अति विस्तृत ग्रन्थ है, ऊपर से इसका आकार टीकाओं से तथा टीकाओं की टीकाओं से बहुत बढ़ गया है। शबर के पूर्व एक टीकाकार थे, जिन्हें शवर ने वृत्तिकार की संज्ञा दी है'
३०. प्रथमेऽध्याय प्रमाणलक्षणं वृत्तम् । तत्र विध्यर्थवादमन्त्रस्मतयस्त्तत्त्वतो निर्णीताः । गुणविधिनामधेयं परीक्षितम्। सन्दिग्भानामर्थानां वाक्यशेषादर्थाच्चाध्यवसानमुक्तम् । शबर (२।११ के आरम्भ में) । तन्त्रवातिक ने ऊपर के 'तत्त्वत' को इस प्रकार व्याख्यायित किया है : 'विध्यादितत्त्व निर्णोतिः प्रमाणेनैव स्थिता। समस्तो हि प्रथमः पादरचोदनासूत्रपरिकरः ।... श्रुतिमूलत्वं विज्ञानस्य स्मृतिप्रामाण्य तत्त्वम् । नामधेयस्य चोदमान्तर्गतत्वात्प्रमागत्वम्। सन्दिग्भनिर्णय वाक्यशेषसामर्थ्ययोः प्रामाण्यमित्येवं समस्तमध्यायं प्रमाणलक्षणमाचक्षते।' पू० मी० सू० बारह अध्यायों में विभक्त है । अतः इसे द्वादशलक्षणी भी कहा गया है।
३१ 'शब्द क्या है, के विषय में शबर ने स्पष्ट रूप से (भगवान्) उपवर्ष (२११५ की व्याख्या में) का उल्लेख किया है, किन्तु रामानुज का कथन है कि बोधायन ने पू० मी० सू० एवं वे० सू० पर एक भाष्य लिखा था। वृत्तिकार, उपवर्ष एवं बोधायन के विषय में मतमतान्तर हैं। देखिए म० म० प्रो० कुप्पुस्वामी (तृतीय अखिल भारतीय ओरिएण्टल कांफ्रेस, पृ० ४६५-४६८) एवं पं० वी० ए० रमास्वामी (इण्डि० हि० क्वा०, जिल्द १०, पृ० ४३१-४३३), जिन्होंने वृत्तिकार एवं उपवर्ष के परिचय पर विचार किया है । डा० एस० के० आयंगर (मणिमेकलाई इन इट्स हिस्टॉरिक सेटिंग, पृ० १८६) एवं प्रस्तुत लेखक (जे० बी० बी० आर० ए० एस०, १६२१, पृ० ८३-६८) का मत है कि वृत्तिकार एवं उपवर्ष पृथक्-पृथक् व्यक्ति हैं। म० म० कुप्पुस्वामी का मत है कि बोधायन एवं उपवर्ष एक ही हैं। शंकराचार्य ने सम्मान के साथ उपवर्ष का नाम दो बार लिया है (भगवान् कहा है, वे० सू० ११३।२८ एवं ३।३।५३ पर) किन्तु कहीं भी बोधायन का उल्लेख नहीं किया है। जिसको विशद टीका के विषय में रामानुज ने वे० सू० के भाष्य में उल्लेख किया है। देखिए बोधायन एवं उपवर्ष पर जर्नल आव इण्डियन हिस्ट्री, मद्रास, जिल्द ७, पृ० ७, पृ० १०७-११५ एवं बी० ए० रमास्वामी शास्त्री (भूमिका तत्त्वबिन्दु,प.० १४-१८, १६३६)। और देखिए इण्डि० हि० क्वा० (जिल्द १०, पृ० ४३१-४५२) जहाँ पूर्वमीमांसासूत्र के वृत्तिकारों पर एक लेख है।
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