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धर्मशास्त्र का इतिहास उन्होंने अपने श्लोकवार्तिक में यह प्रदर्शित करने का प्रयास किया है कि यह मीमांसा आत्मा एवं परलोक में विश्वास रखती है। आत्माएँ अनेक हैं, नित्य, विभु एवं शरीर से भिन्न हैं, वे ज्ञान एवं मन से भी भिन्न हैं। आत्मा का निवास शरीर में होता है, वह कर्ता एवं मोक्ता है, वह शुद्ध चेतना के स्वरूप वाला है और स्वसंवेद्य (स्वयं अपने से जाने योग्य) है।
' यद्यपि पू० मी० सू० ने सीचे ढंग से आत्मा के अस्तित्व की चर्चा नहीं की है, किन्तु कुछ ऐसे संकेत मिलते हैं, जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि पू० मी० स० ने उपलक्षित ढंग से आत्मा के अस्तित्व में विश्वास किया है। बहुत से धार्मिक कृत्यों के सम्पादन का फल होता है स्वर्ग और पू० मी. सू० ने कतिपय वैदिक वचनों की ओर संकेत किया है जहाँ पर कृत्यों का फल स्वर्ग कहा गया है (उदाहरणार्थ, अधिकरण ३१७।१८-२०, 'शास्त्रफलं प्रयोक्तरि' जो 'अग्निहोत्रं जहुयात्स्वर्गकाम:' ऐसे वचनों का अर्थ बताता है)। शबर (११११५) ने आत्मा को शरीर से भिन्न माना है। श्लोकवार्तिक ने इस विषय में १४८ श्लोक दिये हैं और तन्त्रवातिक ने भी संक्षेप में इस पर विचार किया है (पू० मी० सू० २१११५) । श्लोकवार्तिक (आत्मवाद, श्लोक १४८) में एक मनोरम श्लोक है :--'भाष्यकार (शबर) ने नास्तिकता का उत्तर देने के लिए यहाँ
सूत्र पर काशिका ने 'लोकायतिक:' का उल्लेख किया है। कम-से-कम ६ठी शती के पूर्व तक लौकायतिक शब्द उस व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होने लगा था जो आत्मा को शरीर से पृथक् नहीं मानते थे। कादम्बरी में यों आया है : 'लोका. यतिकविद्यये वाधर्मरुचेः' । शंकराचार्य ने वे० सू० (३।३।५४) में कहा है कि लोकयतिक लोग चार तत्त्वों (पृथिवी, जल, अग्नि एवं वायु) के अतिरिक्त किसी अन्य सिद्धान्त को नहीं मानते। देखिए प्रो० दासगुप्त का प्रन्थ, 'इण्डियन फिलॉसॉफी, जिल्व ३, पृ० ५१२-५३३ एवं डा० डब्ल्यू० रूबेन कृत 'लोकायत (बलिन १६५४)। छान्दोग्योपनिषद् (८1८) से प्रकट होता है कि असुर विरोचन के मत से शरीर से पृथक कोई आत्मा नहीं है और शरीर ही आत्मा है। अभी हाल में (सन् १६५६ ई०) श्री देवप्रसाद चट्टोपाध्याय ने 'लोकायत' नामक ग्रन्थ लिखा है जिसमें विस्तार के साथ प्राचीन भारतीय भौतिकवाद पर अध्ययन उपस्थित किया गया है।
४. इत्याह नास्तिक्य निराकरिष्णुरात्मास्तिता भाष्यकृदत्रं युक्त्या । दढत्वमेतद्विषयस्य बोधः प्रयाति वेदान्तनिवगेन ॥ श्लोकवा० (आत्मवाद, १४८) । आत्मा के स्वसंवेद्य होने के विषय में शबर का कथन है: 'स्वसंवेद्यः स भवति , नासावन्यन शक्यते द्रष्ट कथमसौ निदिश्यतेति । यथा च कश्चिच्चक्षमान स्वर न च शक्नोत्यन्यस्मं जात्यन्धाय तन्निदर्शयितुम् । न च तन्न शक्यते निदर्शयितुमित्येतावता नारतीत्यवगम्यते और वे बृहदारण्यकोपनिषद के कुछ वचनों पर निर्भर करते हैं, यथा-३६॥ २६, ४।५।१५ (अगृह्यो न हि गृह्यते) ४।३।६ (आत्मवास्य ज्योतिर्भवति)। श्लोकवातिक में, 'आत्मास्तिता' एवं 'नास्तिक्य' शब्द एक-दूसरे को सन्निधि में रखे हुए हैं, अतः इससे यह प्रकट होता है कि कुमारिल के मत से नास्तिक मुख्य रूप से वह है जो आत्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता। पाणिनि में एक सूत्र है 'अस्ति नास्ति दिष्टे मतिः ' (४।४।६०) जिस पर महाभाष्य में टीका है : 'अस्तीत्यस्यमतिरास्तिकः । नास्तीत्यस्य मतिर्नास्तिकः' काशिका में व्याख्या है : 'परलोकोऽस्तीति यस्य मतिरस्ति स आस्तिकः तद्विपरीतो नास्तिकः' । अतः मुख्य रूप से नास्तिक का अर्थ है 'वह व्यक्ति जो आत्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखता है (परिणामतः वह भौतिक लोक के अतिरिक्त किसी अन्य लोक में विश्वास नहीं करता)। तन्त्रवार्तिक ( पृ० ४०२-४०४, २।११५ ) में आत्मा के विषय में ऐसा कहा गया है: 'तत्रनित्यः सन्नात्मा शरीराभ्यन्तरवर्ती (नाणुमात्रः, न शरीरपरिमितः), सर्वगतः, आत्मनातात्वे त्वदोषः, सर्वगतत्वात्सिद्धयात्मनो निश्चलत्वम्।
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