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पूर्वमीमांसा के कुछ मौलिक सिद्धान्त
१२१ (अर्थात, भाष्य-वचनों में) तकं द्वारा आत्मा के अस्तित्व को स्थापित किया है। इस विषय में (अर्थात् आत्मा के अस्तित्व के विषय में) वेदान्त के वचनों द्वारा बोध (ज्ञान) सुस्थिर एवं चिरस्थायी हो जाता है ।' पद्मपुराण (६।२६३।७४-७६) में आया है कि जैमिनि ने एक विशाल किन्तु निरर्थक शास्त्र बनाया है जिसमें देवता के अनस्तित्व का विवेचन पाया जाता है।"
(४) ईश्वर एवं यज्ञों में देवतागण : शबर की स्थिति यों है-वेदों का प्रणयन ईश्वर द्वारा नहीं हआ है और न शब्द एवं अर्थ का सम्बन्ध ही ईश्वर द्वारा निर्मित किया गया है। प्रकरणपञ्चिका ने भी अखिल विश्व के लिए किसी स्रष्टा की आवश्यकता नहीं समझी है। कुमारिल की बात भी विलक्षण एवं आश्चर्यजनक है। उन्होंने श्लोकवार्तिक में कहा है कि यह सिद्ध करना कठिन है कि ईश्वर ने धर्माधर्म , उनकी प्राप्ति के साधनों, शब्दार्थों के सम्बन्धों एवं वेद के साथ सर्वप्रथम इस संसार की सष्टि की। इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने स्पष्टरूप से सर्वोच्च शक्ति या ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया है , प्रत्युत ऐसी शक्ति या ईश्वर के प्रति अनभिज्ञता मात्र प्रकट की है। इतना होते हुए भी उन्होंने श्लोकवातिक का आरम्म शिव-स्तति के
नाकर का कथन है कि यह दलोक यज्ञ का देवकरण मात्र है। किन्तु वैसी स्थिति में कमारिल पर द्वैधीमाव या कपट का लांछन लग जायगा। ऐसा कहना अच्छा होगा कि किसी ग्रन्थ के आरम्भ करने में मंगल वचन कहने की परिपाटी को कुमारिल अमान्य नहीं कर सके।
पवित्र अग्नि में आहति डालने के संदर्भ में देवता से सम्बन्धित प्रश्न पर विचार करने से आश्चर्यजनक परिणाम प्राप्त होते हैं। जैमिनि (८॥१॥३२-३४) के मत से यज्ञ में 'हवि' प्रधान है और देवता गौण, और जब इवि एवं देवता के चुनाव की बात उपस्थित हो तो अन्तिम निर्णय के लिए हमें हवि पर निर्भर रहना होगा। तर्क यह है कि वेद देवता को यज्ञिय कृत्य से सम्बन्धित कर देता है, यथा 'सन्तान के इच्छुक व्यक्ति को ११ घटशकलों पर पकाया गया हवि इन्द्र एवं अग्नि के लिए देना चाहिए, तब इन्द्र उसे सन्तान देता है (तै० सं० २।२।०१) इतना होते हुए भी फल की प्राप्ति यज्ञ से ही होती है न कि देवों से (यहाँ पर इन्द्र एवं अग्नि से) और ऐसे शब्द कि 'इन्द्र एवं अग्नि यजमान को सन्तान देते हैं, केवल स्तुति रूपात्मक हैं। इस विषय में प्र० मी० सू० (१६-१०) अति महत्वपूर्ण है। शबर ने वैदिक वचन उद्धृत किये हैं, यथा- ऋ० १०१४७११, ३३३०१५, ८११७८ (जहाँ इन्द्र के दाहिने हाथ, मक्का, गले, पेट एवं बाहओं का उल्लेख है), श६५।१०, ८७७४ (जहाँ इन्द्र को अपने पेट में सभी खाद्य पदार्थों के रख लेने एवं ३० पात्रों में मरे सोमरस को पी लेने की चर्चा है), ८३२।२२ एवं १०1८६१० (जहाँ इन्द्र को लोक, स्वर्ग, पथिवी, जलों, पर्वतों का राजा कहा गया है। शबर ने यह सब उद्धत करके टिप्पणी की है कि ये सब अर्थवाद मात्र हैं, यद्यपि ऐसा लगता है कि देवों को शरीर प्राप्त हैं और वे खाते-पीते हैं। शास्त्रदीपिका में तर्क आया है कि यदि देवता को शरीर होता और वे खाते-पीते एवं प्रसन्न होते तो वे अनित्य हो जाते और उनका वेद में, जो स्वयं नित्य है, इस प्रकार का उल्लेख न होता। आगे और कहा गया है कि सीमित बुद्धि वाले लोग वेद-वचनों को भली भांति न जानने के कारण भ्रामक बातें करते हैं। शबर (१०।४।२३)ने टिप्पणी की है कि इस विषय में कतिपय मत हैं कि देवता क्या हैं जिन्हें सूक्तों में सम्बोधित किया जाता है (यथा ऋ० ११६४) या जिन्हें वेद द्वारा हवि देने का निर्देश है (यथा-आठ घटशकलों पर पका
५. वेदार्थवन्महाशास्त्रं मायया यदवैदिकम् । मयंव रक्ष्यते देवि जगतां नाशकारणात् । द्विजन्मना जैमिनिना पूर्व वेद (चेद ?) मपार्थकम् । निरीश्वरेण वादेन कृतं शास्त्रं महत्तरम् ।। पद्मपुराण (६।२६३।७४-७६)।
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