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धर्मशास्त्र का इतिहास स्थान पर उनका कथन है 'हमारे मुरु इसे सहन नहीं करते' । ४ शालिकनाथ ने अपनी प्रकरणपंचिका में श्लोकवार्तिक के कई श्लोक उद्धृत किये हैं। मण्डन मिश्र ने पूर्व मीमांसा पर कई ग्रन्थ लिखे हैं, यथा-विधि-विवेक (वाचस्पति की न्यायकणिका के साथ बनारस में प्रकाशित), भावनाविवेक (उम्बेक की टीका के साथ । सरस्वती भवन सीरीज़ में सम्पादित ), विभ्रमविवेक एवं मीमांसानुक्रमणी (चौखम्भा संस्कृत सीरीज)। शास्त्रदीपिका (पू० मी० सू० २।१।१) ने क मारिल के श्लोकों पर मण्डन की व्याख्या उद्धृत की है ।३५ अत: मण्डन या तो कुमारिल के पश्चात् हुए या कुमारिल के समकालीन, किन्तु अवस्था में छोटे थे और लगभग ६६० ई० से ७१० ई० के आसपास हुए। इसके अतिरिक्त शान्तरक्षित ने अपने तत्त्वसंग्रह (गायकवाड़ ओरिएण्टल सीरीज) में कुमारिल की कारिकाओं की आलोचना कई बार की है और उसके शिष्य कमलशील ने कुमारिल का नाम कई बार लिया है। शान्तरक्षित ने न तो प्रभाकर का नाम लिया है और न उन्हें उद्धृत ही किया है। उनका काल ७०५-७६२ ई० है। अतः कुमारिल को लगभग ६५०-७०० ई० में अवश्य रखा जा सकता है। शालिकनाथ ने श्लोकवार्तिक एवं मण्डन के ग्रन्थों का उल्लेख किया है, अतः उन्हें हम ७५०-८०० के बीच में कहीं रख सकते हैं । यदि शालिकनाथ प्रभाकर के सीधे शिष्य रहे होंगे तो प्रभाकर (जो शान्तरक्षित को अज्ञात थे) या तो कुमारिल के समकालीन (अर्थात् हम उन्हें ७००-७६० के बीच में या थोड़ा बाद में कहीं रख सकते हैं) या कुमारिल के पश्चात् रख सकते हैं। प्रभाकर के विषय में ऐसी परम्परा है कि वे कुमारिल के शिष्य थे। बहुत-सी परम्पराएँ (यथा विक्रमादित्य के समय के नवरत्न) यों ही उठ खड़ी होती हैं, किन्तु हमें उनका तिरस्कार नहीं कर देना चाहिए, प्रत्युत उनकी जाँच करनी चाहिए।
एक समय प्रभाकर को अति महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। विक्रमादित्य षष्ठ (१०६८ ई०) के गंडक शिलालेख में लक्किगुण्डी नामक स्थान पर प्रभाकर के सिद्धान्त को पढ़ाने के लिए एक पाठशाला की स्थापना का उल्लेख है। (एपिफिया इण्डिका, जिल्द १५, प०३४८) । इस उल्लेख तथा मिताक्षरा (याज्ञ० २११४) में पाये गये निर्देश से पता चलता है कि प्रमाकर सम्प्रदाय का ११ वीं शती में पर्याप्त प्रभाव था। विशेषतः कर्नाटक एवं महाराष्ट्र देशों में । मदनपारिजात ने (जो १३६०-१३६० में लिखित उत्तर भारतीय ग्रन्थ है) गुरु का एक आधा श्लोक उद्धृत किया है। स्मृतिचन्द्रिका (व्यवहार, पृ० २५७), वीरमित्रोदय (व्यवहार, पृ० ५२३) आदि ने भवनाथ के नयनिवेक (प्रभाकर सम्प्रदाय का अन्तिम उत्कृष्ट ग्रन्थ) का उल्लेख किया है। धीरे-धीरे प्रभाकर
३४. यच्च वह्वीषु, ज्वालास्वेकतिवतिनीषु ज्वालात्वं सामान्य प्रत्यभिज्ञागोचरः कश्चिदिष्यतेतदपि गुरुरस्माकं न मृष्यति । प्रकरण० (पृ० ३१) । यदि वे पश्चात्कालीन अनुयायी मात्र होते और शिष्य न होते तो केवल 'गुरुन मृष्यति' ही कहते ।
३५. शास्त्रदीपिका (पू० मी० सू० २।१।२) में आया है: 'उक्तं ह्येतदाचार्यः' । धात्वर्थ व्यतिरेकेण... गम्यते॥' यह तन्त्रवातिक (पृ० ३८२) में पाया जाता है। इसके उपरान्त शास्त्रदीपिका पुनः कहती है, विवृतं चैतन्मण्डनेन 'कथ्यमानाद्रूप... भावना कि प्रदुष्यति ।।' यह भावनाविवेक में पाया जाता है (पृ० ८०, थोड़ा-सा अन्तर है)। भावनाविवेक (पृ.६१) में आया है तथा क्रमवतोर्नित्यं'... प्रतीयते' । यह तन्त्रवातिक (पृ० ३८१) में आया है। तुख है कि म० म० गंगानाथ झा (पूर्वमीमांसा की भूमिका, पृ० २१) ने बहुत ही दुर्बल आधार पर (शास्त्रदीपिका के शब्दों पर) यह कह दिया है कि मण्डन ने तन्त्रवार्तिक पर एक टीका लिखी है।
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