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मीमांसा एवं धर्मशास्त्र
या रुकावट वाला) तथा अनवद्य (दोषरहित) होना चाहिए। २६ भाष्य वह है जो सूत्र के अर्थ को वैसे वाक्यों में रखता है जो सूत्र के शब्दों के अनुगामी होते हैं और जो (भाष्य) स्वयं अपने से कुछ जोड़ता है (सूत्र के विषय की व्याख्या या निरूपण के लिए) । वार्तिक वह है जो यह बताता है कि सूत्र में क्या उल्लिखित है या क्या छूट गया है या क्या ठीक से नहीं कहा गया है। राजशेखर की काव्यमीमांसा (अध्याय २) में सूत्र, भाष्य, वृत्ति, टीका, कारिका आदि की परिभाषाएँ दी गयी हैं ।
पूर्वमीमांसासूत्र ने प्रथम सूत्र में घोषित किया है कि व्यक्ति को वेदाध्ययन करना चाहिए। इसके उपरान्त उसमें आया है कि जब व्यक्ति ऐसा कर ले तो उसे धर्म के प्रति जिज्ञासा करनी चाहिए । इसलिए दूसरे सूत्र में धर्म की परिभाषा ही दी गयी है कि वह एक ऐसा कार्य है जो मनुष्य का सबसे अधिक हित करनेवाला है, वह एक प्रबोधकारी (वैदिक) वचन से विशेषता को प्राप्त है' । शबर ने व्याख्या की है कि 'चोदना' शब्द का अर्थ है वह वाक्य जो व्यक्ति को कोई कार्य करने के लिए प्रेरित करता है या प्रबोधित करता है। अत: इससे प्रकट होता है कि धर्म के विषय में ज्ञान (प्रमाण) के साधन वैदिक वाक्य हैं और उसका यह तात्पर्य भी है कि चोदना द्वारा जो कुछ विशिष्टता को प्राप्त होता है या प्रकट किया जाता है वह धर्म है अर्थात् उससे धर्म का स्वरूप प्रकट किया जाता है । 'अर्थ' शब्द द्वारा वे कर्म पृथक किये जाते हैं (धर्म से उनका पृथकत्व) प्रकट किया जाता है जो वेद में उल्लखित तो होते हैं, किन्तु उसके करने से बुरा फल प्राप्त होता है, यथा--ऐसा वाक्य 'जो व्यक्ति (किसी को हानि पहुँचाने के लिए) अभिचार करता है वह श्येनयाग कर सकता है। यह धर्म नहीं है, अधर्म है, क्योंकि जादू को पापमय कह कर घृणित माना गया है। यह वैदिक वाक्य यह नहीं कहता कि हिंसा करनी चाहिए, यह केवल इतना ही कहता है कि श्यनयाग से पीड़ा होती है, अत: यदि कोई पीड़ा देना चाहे या हिंसा करना चाहे तो श्येन उसका साधन है।२७
दलोकवार्तिक में आया है कि 'चोदना' 'उपदेश' एवं 'विधि' शब्द भाष्यकार शबर के अनुसार पर्याय हैं। 'विधि' शब्द का अर्थ बहुधा शास्त्रचोदना या शास्त्राज्ञा के रूप में किया जाता है, किन्तु सामान्य सम्माषण
२६. अल्पाक्षरम सन्दिग्धं साखद्विश्वतोमुखम् । अस्ततोभमनवद्य च सूत्रं सूत्रविदो विदुः (पद्मपाद को पञ्चपादिका, पृ० ८२, ब्रह्माण्ड २॥३३॥५८, वायु० ५६ ॥१४२, युक्तिदीपिका, पृ० ३ जहाँ 'अरतोभं' को 'अपुनरुक्तं' कहा गया है)। पञ्चपादिका ने इसे पौराणिक श्लोक के रूप में उद्धृत किया है और वक्तव्य दिया है-'सर्वतोमुखमिति नानार्थतामोह' और टीका में आया है : 'अर्थ कत्वादेक' वाक्यमिति न्यायस्य सूत्रान्यविषयत्वात् न वाक्य भेदः'।
२७. तस्माच्चोदनालक्षणोऽर्थः श्रेयस्करः: ...य एव श्रेयस्करः स धर्म शब्देनोच्यते'। उभयमिह चोदनया लक्ष्यते अर्थोऽनर्थश्चेति । कोऽर्थः, यो निःश्रेयसाय ज्योतिष्टोमादिः। कोऽनर्थः, यः प्रत्यवायाय श्येनो वजा इषुरित्येवमादिः । तत्र अनर्थो धर्म उक्तो मा भूदिति अर्थग्रहणम् । कथं पुनरसावनर्थः । हिंसा हि सा हिंसा च प्रतिषिद्धेति । ... नैव श्येनादयः कर्तव्या विज्ञायन्ते । यो हिसितुमिच्छेत् तस्यायमभ्युपाय इति तेषामुपदेशः । हि श्येनेनाभिचरन् यजेत इति हि समामनन्ति, न 'अभिचरितव्यम्' इति । शबर (शश२, अन्त में) । देखिए पू० मी० सू० (१।४।५ एवं ३।८।३६-३८) जहाँ श्येनयाग का उल्लेख है जो ज्योतिष्टोम का परिष्कृत रूप है और देखिए इषुयाग के लिए पू०. मी० सू० (७।१।१३-१६, जहाँ ७।१।१३ पर शबर ने आप० श्रौ० (२२७-१८, समानमितरच्छ्येनेन) को उद्धत किया है।
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