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धर्मशास्त्र का इतिहास है), १०।२६ (जहाँ ऋ० १०१८२१२ अधिदैवत एवं अध्यात्म ढंग से निरूपित है), १११४ (जहाँ ऋ० १०।८।३ अधियज्ञ एवं अधिदैवत ढंग से व्याख्यायित हैं), १२।३७ (जहाँ वाजसंहिता ३४।५५ अधिदैवत एवं अध्यात्म ढंग से निरूपित हैं); १२।३८ (जहाँ अथर्व० १०८१६ अधिदैवत एवं अध्यात्म ढंग से व्याख्यायित हैं। मनु (१।२३) एवं वेदांगज्योतिष का कथन है कि तीन वेदों के मन्त्र अग्नि, वायु एवं सूर्य से यज्ञों के सम्पादन के लिए लिये गये थे । विश्वरूप (याज्ञ. ११५१) ने 'वेदं व्रतानि वा पारं नीत्वा' की व्याख्या वेद को स्मृतिपटल में धारित करने एवं उसके अर्थ को पूर्णरूपेण समझने के अर्थ में की है न कि केवल स्मृतिपटल में धारित करने के अर्थ में । दक्ष का कथन है कि वेदाभ्यास (वेदाध्ययन) में पाँच बातें होती हैं, यथा-- वेवस्वीकरण (पहले स्मृतिपटल पर धारण करना अर्थात् याद कर लेना), विचार (उस पर विचार करना); अभ्यसन (बार-बार दुहराना), जप एवं दान (शिष्य को उसका ज्ञान देना) ।२२ इन आदर्शों का पालन थोड़े-से लोग ही कर पाते हैं, अधिक ब्राह्मण लोग सामान्यत: एक वेद या उसके किसी एक अंश को ही स्मरण कर पाते थे ।
सभी दर्शनों में पूर्वमीमांसाशास्त्र अत्यन्त विशद है । २३ शास्त्र वही है जो नित्य शब्दों (वेद) द्वारा या मनुष्यों द्वारा प्रणीत ग्रन्थों के रूप में (मानवीय) कर्मों (प्रवृत्तियों) एवं संयमनों (निवृत्तियों) का नियमन करता है और उन्हें घोषित करता है ।२४ पू० मी० में २७०० सूत्र तथा ६०० से अधिक अधिकरण (जो विचारणीय विषयों के निष्कर्ष या न्याय कहलाते हैं) पाये जाते हैं । कुछ सूत्र बार-बार आये हैं, यथा--'लिंगदर्शनाच्च' (यह ३० बार आया है) एवं 'तथा चान्यार्थदर्शनम्' (जो २४ बार आया है । अधिकरण में पाँच विषय होते हैं विषय, विशय (सन्देह), संगीत, पूर्वपक्ष एवं सिद्धान्त (अन्तिम निर्णय)।२५ सूत्र को अल्पाक्षर (कम अक्षरों वाला अर्थात संक्षिप्त), असंदिग्ध (अर्थ में स्पष्ट), सार वाला (जिसका कुछ सार हो); विश्वतोमुख (अर्थात् सभी दिशाओं वाला, जिसका प्रयोग विशद हो) अस्तोभवाला (अर्थात् बिना व्यवधान
२२. वेदस्य पारनयनमर्थतो ग्रन्थतश्च स्वीकरण न ग्रन्थत एव । विश्वरूप (याज्ञ० ११५१)। वेदस्वीकरणं पूर्व विचारोऽभ्यसनं जपः । तद्दानं चैव शिष्येभ्यो वेदाभ्यासो हि पञ्चधा ॥ दक्षस्मति (२।३४) मिताक्षरा द्वारा बिना नाम लिये याज्ञ० (३।३१०) को व्याख्या में उद्धृत, अपरार्क (पृ० १२६, याज्ञ० १६)।
२३. दर्शन बहुत से हैं, जैसा कि माधवाचार्य के सर्वदर्शन संग्रह से प्रकट है, किन्तु शास्त्रसम्मत एवं प्रसिद्ध दर्शन ६ हैं और वे जोड़े में विख्यात हैं, यथा-न्याय एवं वैशेषिक, सांख्य एवं योग, पूर्व मीमांसा एवं उत्तरमीमांसा। इण्डियन एण्टीक्वेरी (जिल्द ४५, पृ०, १-६ एवं १७-२६) में ऐसा कथित है कि सर्वदर्शनसंग्रह माधवाचार्य द्वारा, जो आगे चलकर विद्यारण्य हो गये, नहीं लिखा गया है। प्रत्युत वह सायण के पुत्र तथा माधवाचार्य के भतीजे द्वारा लिखा गया था।
२४. प्रवृत्तिर्वा निवृत्तिर्वा नित्येन कृतकेन वा । शासनाच्द्धंसनाच्चैव शास्त्रमित्यभिधीयते ॥ भामती (वे० सू० ११११३ पर) जो परा० मा० (२।२, पृ० २८८) द्वारा पुराण से उद्धृत किया गया है। प्रथम अर्थाली श्लोकवातिक (शब्द परिच्छेद, श्लोक ४) है।।
२५. विषयो विशयश्चैवपूर्वपक्षस्तथोत्तरम् । निर्णयश्चेति पञ्चांग शास्त्रधिकरणं स्मृतम ॥ तिथितत्त्व (प०६२) रामकृष्ण की अधिकरणकौमुदी एवं सर्वदर्शनकौमदी (पृ० ८६) द्वारा उद्धत । कुछ लोगों ने 'निर्णश्चेति सिद्धान्त' ऐसा पढ़ा है । माधवाचार्य ऐसे लोगों ने पांचों को यों कहा है:-विषय, विशय (या सन्देह), सङगति, पूर्वपक्ष एवं सिद्धान्त ।
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