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मीमांसा एवं धर्मशास्त्र मीमांसासूत्र यह नहीं बताता कि अर्थ जानने के पूर्व कितना वेदाध्ययन किया जाना चाहिए। इस विषय में स्मतियां प्रकाश डालती हैं। गौतम (२१५१-५२) ने कई विकल्प दिये हैं यथा-एक वेद के लिए १२ वर्ष या दार वेदों में प्रत्येक के लिए १२ वर्ष अथवा जब तक एक वेद कण्ठस्थ न हो जाय । मनु० (३।१-२) में ऐसी ही बातें हैं, यथा--गुरु के चरणों में ३६ वर्षों तक वेदाध्ययन करना चाहिए या १८ वर्षों तक या ६ वर्षों तक अथवा जब तक वेद स्मृतिपटल पर अंकित न हो जाय । इस प्रकार तीन वेदों या एक वेद पढ़ने का विकल्प दिया हुआ है, याज्ञ० (१।३६) में आया है कि वेदाध्ययनकाल प्रत्येक वेद के लिए १२ वर्षों का होता है , या ५ वर्षों का या कुछ ऋषियों के मत से उतने काल तक जब तक कि छात्र एक वेद या उससे अधिक स्मरण न कर ले। किन्तु ये निर्देश बहुत-से ब्राह्मणों, क्षत्रियों एवं वैश्यों के लिए केवल ध्वनियाँ या शब्द मात्र रहे होंगे। इतना ही नहीं, मीमांसा का कथन है कि तीनों वर्गों के व्यक्ति को न केवल वेदाध्ययन करना चाहिए, प्रत्युत उसे उसका अर्थ भी समझना चाहिए। पू० मी० सू० (१११११) पर शबर का कथन है कि श्रद्धास्पद याज्ञिक लोग ऐसा घोषित नहीं करते कि केवल वेदाध्ययन मात्र से अर्थात् केवल वेद को स्मरण कर लेने से फल की प्राप्ति होती है, जहाँ ऐसा वचन आया है कि वेद स्मरण कर लेने से जो फल मिलता है वहाँ ऐसा कथन अर्थवाद (अर्थात केवल वेदाध्ययन की प्रशंसा) मात्र है। देखिए तैत्तिरीयारण्यक (२।१५) २१, जहाँ ऐसा आया है-'जो जो यज्ञ के विषय में वैदिक वचन का स्मरण करता है, उसका फल यह है कि मानो वह यज्ञ ही कर रहा हो, और वह अग्नि, वायु, सूर्य से सायुज्य प्राप्त कर लेता है।' तं० उप० (११६) ने स्वाध्याय (वेद को धारण करना) एवं प्रवचन (वेद को पढ़ाना या उसकी व्याख्या करना) को सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कहा है और दो ऋषियों के मतों का उद्घाटन करने के उपरान्त नाक मौद्गल्य का मत दिया है कि स्वाध्याय एवं प्रवचन अति महत्त्वपूर्ण हैं और उनको अपनाना चाहिए तथा उनके लिए प्रयत्न करना चाहिए; यद्यपि ऋत, सत्य, दम, शम, अग्निहोत्र, आतिथ्य आदि उनके साथ जोड़े जा सकते हैं, क्योंकि ये दोनों तप कहे जाते हैं। पू० मी० सू० (३।८।१८) में आया है (ज्ञाते च वाचनं न ह्यविदान विहितोऽस्ति) कि केवल वही व्यक्ति जो वेद जानता है यज्ञों के सम्पादन का अधिकारी है। शबर ने एक प्रश्न उठाया है कि वैदिक यज्ञ करने के योग्य होने के लिए किसी व्यक्ति को कितना वेद जानना चाहिए और स्वयं उत्तर दिया है कि उसे उतना वेद स्मरण होना चाहिए जिससे वह अपने संकल्पित यज्ञ को पूर्ण कर सके । इसी सूत्र पर तन्त्रवार्तिक ने इतना जोड़ा है कि ब्रह्मचर्य काल में सम्पूर्ण वेद का अध्ययन करना चाहिए, किन्तु यदि कोई सम्पूर्ण वेद को स्मरण करने में असमर्थ हो, किन्तु किसी प्रकार अग्निहोत्र एवं दर्शपूर्णमास के अंश को स्मरण कर लेता है तो ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उसे इन दोनों के सम्पादन का अधिकार नहीं है । वेद को स्मृति में धारण करना और उसके अर्थ को जानना बहुत बड़ा कार्य था। बहुत-से वैदिक मंत्र तीन प्रकार के प्रयोग वाले होते थे, यथा--यज्ञों के लिए (अधियज्ञ), देवों के लिए (अधिदैवत या अधिदैव) एवं अध्यात्म के लिए अर्थात् आध्यात्मिक या तात्त्विक अर्थ के लिए। देखिए निर्णयसागर प्रेस संस्करण का ३।१२ (जहाँ ऋ० १११६४।२१ अधिदैवत एवं अध्यात्म ढंग से व्याख्यायित
२१. तस्मात्स्वाधायोध्येतव्यो यं यं ऋतुमधीते तेम तेनास्येष्टं भवत्यग्नेर्वायोरादित्यस्य सायुज्यं गच्छति । ते० आ० (२।१५); ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च . . .सत्यमिति सत्यवचा राथीतरः। तप इति तपोनित्यः पौरुशिष्टिः स्वाध्यायप्रवचने एवेति नाको मौद्गल्यः । तद्धि तपः तद्धि तपः । ते० उप० (१६)।
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