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मीमांसा एवं धर्मशास्त्र
३१३) के समान है--'यदि (स्पष्ट वैदिक वचन एवं स्मृति वचन में) विरोध हो, तो स्मृति का त्याग होना चाहिए, यदि विरोध न हो तो अनुमान निकालना चाहिए (कि स्मृतिवचन किसी वैदिक वचन पर आधारित है)।' आप० में आया है-'अनध्याय (वैदिक अध्ययन को पर्वो आदि में बन्द करने) के नियम केवल वैदिक तक ही प्रयुक्त होते हैं, यज्ञों में उनके प्रयोग के लिए नहीं।' स्थानाभाव से हम आप० घ० एवं जैमि यहीं समाप्त करते हैं । उपर्युक्त बातों से यह विदित होता है कि आपस्तम्ब के काल में मीमांसा के सिद्धान्त प्रचलित हो चके थे और उनका पर्याप्त विकास भी हो चुका था। आपस्तम्ब ने 'न्यायवित्समय' (जो लोग न्याय जानते है उनका सिद्धान्त) एवं 'न्यायविदः' शब्दों का प्रयोग किया है, जिससे प्रकट होता है कि उन्होंने किसी मीमांसासम्बन्धी ग्रन्थ की ओर या किसी ऐसे लेखक की ओर संकेत किया है, जिसने मीमांसा-सूत्र लिखा हो। आप० घर एवं पूर्वमीमांसासूत्र के विचारों एवं शब्दों में जो साम्य दीखता है उससे प्रकट होता है कि आपस्तम्ब को या तो मीमांसासूत्र का पता था या उनके समक्ष उसका कोई आरम्भिक पाठान्तर विद्यमान था। ऐसी बात नहीं है कि ये सभी वचन पश्चात्कालीन क्षेपक हैं, क्योंकि उन सभी की व्याख्या हरदत्त ने की है।।
कुछ श्रौतसूत्रों में (यथा कात्यायन० में) वैदिक वचनों की व्याख्या से सम्बन्धित नियम हैं जो जैमिनि के सूत्रों से मिलते-जुलते हैं, कहीं-कहीं तो शब्द-व्यवहार ज्यों-के-त्यों हैं।' थोड़े उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं । मिलाइए
५. यह द्रष्टव्य है कि पूर्वमीमांसासूत्र के लेखकों को शंकर ने बहुधा 'न्यायविदः' कहा है (वेदान्तसूत्र ४।२२); विश्वरूप आदि ने भी यही संज्ञा दी है। ब्रह्मसूत्र (१११११, पृष्ठ ५, चौखम्बा सीरीज) को टीका में भास्कर का कथन है-यच्छब्द आह तदस्माकं प्रमाणमिति हि न्यायविदः। ये शब्द शबर के हैं (पू० मी० सू० ३।२।३६ के भाष्य में)। विश्वरूप को बालक्रीडा ने याज्ञ० (११५८) को टीका करते हुए कहा है- तथा च नैयायिका: 'नहि वचनस्यातिभारोस्तीत्याहुः ।' मिलाइए शबर (जैमिनि २१२१३) : 'किमिव वचनं न कुर्यात् नास्ति ववनस्यातिभारः।' अतः यहाँ शबर नैयायिक कहे गये हैं। बालक्रीडा ने याज्ञ० (१३५३) पर कहा है-'न्यायविदश्च याज्ञिकाः । अपि वा सर्वधर्मः स्यात् तन्न्यायत्वाद् विधानस्य ।' यह अन्तिम जैमिनि (१॥३॥१६) हैं। अतः यहाँ जैमिनि को न्यायविद् एवं याजिक कहा गया है। और देखिए बालकीडा (याज्ञ० ११८७)। माधवाचार्य के जैमिनिन्यायमालाविस्तर में आया है कि न्याय धर्म के निर्णायक और जैमिनि द्वारा व्याख्यायित अधिकरण हैं, (जैमिनिप्रोक्तानि धर्मनिर्णायकान्य धिकरणानि न्यायाः)। श्रौतसूत्रों के लेखकों को बालक्रीडा (याज्ञ० ११३८) ने केवल याज्ञिक कहा है 'सया च याज्ञिकाः व्यवहार्या भवन्ति इत्याहुः।' यह उद्धरण कात्यायनश्रौतसूत्र (२२।४।२७-२८) का है । और भी, 'प्रायश्चित्त विधानाच' नामक सूत्र का० धौ० (१२।१६) एवं पू० मी० सू० (६।३७) दोनों में है और का० श्रौ० (१।८६) पू० मी० सू० (१२।३।१५) ही है। इतना ही नहीं, का० धौ० (११११४-१५) में वे ही शब्द हैं जो पू० मी० सू० (३३२३६-३६) में हैं, किन्तु दोनों के मत भिन्न हैं। मिलाइए पू० मी० सू० (४।४।१६-२१) एवं कात्या० श्री० (४।१।२८-३० ) । ऋ० (१६८।१) एवं (११५६६) में आये हुए 'वैश्वानर' शब्द के अर्थ के विवाद में निरुक्त (७२१-२३) ने 'आचार्यो', प्राचीन 'याज्ञिकों' (जिन्होंने वैश्वानर को आकाश में सूर्य माना है) एवं 'शाकपूणि' (जिन्होंने उसे भूमि की अग्नि माना है) के मतों का प्रकाशन किया है। निरुक्त ने याज्ञिकों के दृष्टिकोण व्यक्त किये हैं (५॥ ११, ७।४, जहाँ याज्ञिकों एवं नरुयतों में मतैक्य नहीं है; ६२६, जहाँ नैरवतों का मत है कि अनुमति एवं राका देवताओं की पत्नियां हैं, और याज्ञिकों का मत है कि वे पूर्णमासी के नाम हैं); और देखिए ११३१ एवं ११४२-४३ ।
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