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मीमांसा एवं धर्मशास्त्र
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सूत्र
पर
पाणिनि के काल में ऐसे भिक्षु होते थे जो 'पाराशर्य के भिक्षुसूत्र' या 'कर्मन्द के भिक्षुसूत्र ' का अध्ययन करते थे और 'पाराशरिणः' एवं 'कर्मन्दिनः' कहे जाते थे । भिक्षु संन्यास मार्ग का द्योतक है। अतः भिक्षुमें संन्यास, उसके समय, नियम, अन्तिम लक्ष्य आदि के विषय अवश्य रहे होंगे । वृहदारण्यकोपनिषद् ( ३ । ५१ । एवं ४।४।२२ ) के अनुसार वे लोग जो ब्रह्म की अनुभूति वाले होते हैं, सभी इच्छाओं का परित्याग कर देते हैं और भिक्षाटन करते हैं । यही बात गौतमधर्मसूत्र ( ३।२।१० - १३ ) में भी है । कर्मन्द के भिक्षुसूत्र के विषय में अभी तक कुछ नहीं ज्ञात हो सका है। किन्तु ऐसा कहना सम्भव है कि पाराशर्य द्वारा घोषित भिक्षुसूत्र आज के ब्रह्मसूत्र या इसके परवर्ती सूत्र ग्रन्थों में किसी के समान रहा होगा । संन्यासाश्रम पाराशर्य के सूत्र के विषय में यह आरम्भिकतम संकेत है । पाणिनि की तिथि के विषय में अभी मतैक्य नहीं है । किन्तु कोई भी आधुनिक विद्वान् उन्हें ई० पू० तीसरी शती के उपरान्त का नहीं मानता। प्रस्तुत लेखक उन्हें ई० पू० ५वीं या छठी शती में रखता है। इससे यह सिद्ध होता है कि पाराशर्य का भिक्षुसूत्र ई० पू० चौथी एवं ७वीं शती के बीच में कभी प्रणीत हुआ होगा । पाणिनि ( ४|१|६७ ) के वार्तिक ( १ ) से प्रकाश मिलता है कि व्यास का 'अपत्य' (पुत्र) 'वैयासकि' ( शुक) कहलाता था ( जैसा कि महाभाष्य से पता चलता है ) । पाणिनि (४|११६६, नडादिभ्यः फक् ) के अनुसार 'बादरायण' शब्द 'बदर' (जो ७६ शब्दों वाले नडादि-गण का एक शब्द है) से बना है, 'बादरि' बदर का पुत्र है और 'बादरायण' बदर का प्रपौत्र ( या अनुवर्ती पुरुष उत्तराधिकारी ) । किसी काल में 'व्यास' एवं 'बादरायण' में भ्रम हो गया और वह शुक, जो वार्तिक एवं महाभाष्य के मत से व्यास का पुत्र है, 'बादरायणि' ( वादरायण का पुत्र) कहलाने लगा, जैसा कि भागवतपुराण (१२०५५८, जहाँ शुक को 'भगवान् बादरायणिः' कहा गया है) में आया है । ऐसा प्रतीत होता है कि वीं शती के उपरान्त बादरायण को भ्रमवश व्यास पाराशर्य कहा जाने लगा ।
पूर्वमीमांसासूत्र एवं ब्रह्मसूत्र में उद्धृत बादरायण एवं जैमिनि के मतों की परीक्षा आवश्यक है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, बादरायण केवल ५ बार पू० मी० सू० में उल्लिखित हुए हैं । (१) पू० मी० सू० (१।१।५ ) में लेखक का कथन है कि वे और बादरायण वेद की नित्यता एवं अमोघता में विश्वास करते हैं; (२) पू० मी० सू० (५|२| १७|२० ) में नक्षत्रेष्टि पर विवेचन हुआ है। यज्ञ के नमूने में नारिष्ठ नामक होम किये जाते हैं; प्रश्न यह उपस्थित होता है कि नमूने के परिष्कारों में जहाँ कुछ उपहोम किये जाते हैं, वहाँ नारिष्ठ होमों का सम्पादन उपहोमों के पूर्व होना चाहिए या उपरान्त । सिद्धान्त का दृष्टिकोण यह है नारिष्ट होम पहले कर दिये जाते हैं । आत्रेय इस मत का विरोध करते हैं, किन्तु बादरायण इसका समर्थन करते हैं। (३) पू० मी० सू० ( १११ / ८ ) में बादरायण का मत प्रकाशित है कि केवल पुरुष ही नहीं, प्रत्युत नारियाँ भी ऋतुओं (वैदिक यज्ञों) में भाग ले सकती हैं, यही मत सिद्धान्त का भी है । ( ४ ) पू० मी० सु० (१०।८।३५-३६) में एक विशद अधिकरण है जिसमें उस गुरुष के लिए, जिसने अभी तक सोमयज्ञ न किया हो, दर्श-पूर्ण मास में आग्नेय एवं ऐन्द्राग्न पुरोडाशों के लिए जो वचन आये हैं उनमें प्रश्न आया है कि क्या वे उसके लिए किसी विधि या केवल अनुवाद की व्यवस्था देते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि बादरायण विधि की बात करते हैं और सिद्धान्त अनुवाद की ( १०|८|४५ ) | ( ५ ) पू० मी० सू० ( ११।१ । ५४–६७) में एक लम्बा अधिकरण आया है जिसमें इस विषय में एक विवेचन उपस्थित किया गया है कि दर्शपूर्णमास में आग्नेय आदि प्रमुख विषयों में आधार जैसे अंगों को दोहराया जा सकता है या केवल एक बार किया जाता है ।
उपर्युक्त पाँच स्थलों से, जहाँ बादरायण उल्लिखित हैं, तीन बातें स्पष्ट हो उठती - पू० मी०
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सू० का
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