________________
hair एवं धर्मशास्त्र
४ ) में ऐसा आया है- 'क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ का यह वास्तविक स्वरूप ऋषियों द्वारा विभिन्न मन्त्रों (छन्दों) में विभिन्न ढंगों से तथा तर्क-संगत ब्रहसूत्रपदों द्वारा, जो निश्चित निष्कर्षो तक पहुँचते हैं, पृथक्-पृथक् गाया गया है।' यहाँ पर गीता ने स्पष्ट रूप से ब्रह्मसूत्र का उल्लेख किया है। यदि कोई ब्रह्मसूत्र ( या वेदान्तसूत्र ) का अवलोकन करे तो पता चलेगा कि बहुत-से सूत्रों में स्मृति पर निर्भरता प्रकट की गयी है, जिस (स्मृति) को आचार्यों ने गीता ही माना है । उदाहरणार्थ, ' स्मृतेश्च' ( वे० सू० १ २६ ) पर शंकराचार्य ने स्मृतिवचन के रूप में गीता ( १८ ६१ एवं १३।२ ) को उद्धृत किया है। इसी प्रकार 'अपि च स्मर्यते' (वे० सू० १।३।२३ ) पर शंकराचार्य ने गीता ( १५६ एवं १२ ) का निर्देश दिया है। और देखिए वे० सू० (२।३।४५) एवं गीता ( १५/७ ) ; वे० सू० (४|१|१० ) एवं गीता ६।११ तथा वे० सू० (४।२।२१ ) एवं गीता ( ८ | २४-२५) । अतः यद्यपि ब्रह्मसूत्र में गीता का उल्लेख स्पष्ट रूप से नहीं हुआ है, तथापि आचार्यों ने एक स्वर से यही माना है कि उपर्युक्त सभी सूत्रों में संकेत गीता की ओर ही है, अन्यत्र नहीं । अतः हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि गीता ने ब्रह्मसूत्र का उल्लेख किया है जो उससे (गीता से) पहले का है, किन्तु गीता के वचन कुछ वेदान्तसूत्रों के आधार कहे गये हैं अतः गीता वेदान्तसूत्र से प्राचीन है । यह विरोधाभास है । शंकराचार्य ने इस विरोधाभास को देखा, इसी कारण उन्होंने 'ब्रह्मसूत्रपदै: ' को उपनिषदों के पदों से सम्बन्धित माना, जो ब्रह्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हैं (अर्थात् उन्होंने 'सूत्र' को 'सूवक' माना है ) । किन्तु इस व्याख्या में केवल खींचातानी है और इसे अन्य टीकाकारों ने स्वीकृत नहीं किया है । इसी से अन्य सिद्धान्तों की आवश्यकता पड़ गयी है, यथा- दोनों का लेखक एक ही है, या महाभारत तथा गीता में समय-समय पर ऊपर से बातें जोड़ी जाती रहीं और जब महाभारत का अन्तिम संस्करण बना तो ब्रह्मसूत्र के विषय वाला श्लोक गीता में जोड़ दिया गया, अथवा गीता के समय में विद्यमान ब्रह्मसूत्र के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थ भी थे जो ब्रह्मसूत्र कहलाते थे ।
प्रस्तुत लेखक के विचार में यह अधिक सम्भव जँचता है कि गीता के सम्मुख ब्रह्मसूत्र नामक कई ग्रन्थ थे और उसने १३।४ में उनकी ओर संकेत किया है, उसने बादरायण के ब्रह्मसूत्र की ओर संकेत नहीं किया है । पू० मी० सू० एवं वे० सू० में उल्लिखित लेखकों की एक संक्षिप्त व्याख्या आवश्यक है। इन दोनों ग्रन्थों ने जैमिनि एवं बादरायण के अतिरिक्त कई अन्य लेखकों के नाम लिये हैं, जो निम्नलिखित हैं
आत्रेय - पू० मी० सू० ४।३।१८, ५।२।१८, ६।१।२६ एवं वे० सू० ३ | ४ | ४४ ;
आश्मरथ्य - पू० मी० सू० ६।५।१६ एवं वे० सू० १ २ २६, १|४|२० ;
कार्ष्णाजिनि -- पू० मी० सू० ४ | ३ | १७, ६।७।३५ एवं वे० सू० ३ | ११६;
नादरि -- पू० मी० सू० ३१ ३ ६ १२७, ८३६, ६।२।३३ एवं वे० सू० १/२/३०, ३|१|११, ४।३।७, ४|४|१० ।
ब्रह्मसूत्र का प्रणयन किया, मौलिक महाभारत एवं गीता का नवीन संस्करण उपस्थित किया तथा उन दोनों को आज वाला ( उपस्थित) रूप प्रदान किया । किन्तु प्रस्तुत लेखक को यह बात मान्य नहीं है । यह अवलोकनीय है कि प्रो० आर० डी० कर्मर्कर ने 'ब्रह्मसूत्रपदैः' से सम्बन्धित लोकमान्य तिलक की व्याख्या नहीं ठीक समझी है। (ए० बी० ओ० आर० आई०, जिल्द ३, पृ० ७३-७६) और कहा है कि गीता ( १३।४ ) में 'ब्रह्मसूत्रपदैः' शब्द बादरायण के सूत्रों की ओर संकेत नहीं करता, प्रत्युत वह अन्य समान ग्रन्थों की ओर निर्देश करता है । किन्तु प्रो० कर्मर्कर महोदय इसके आगे और कुछ नहीं कहते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org