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धर्मशास्त्र का इतिहास
कात्या० (१११।६-१० रथकार के बारे में) एवं जै० (६७१४४); कात्या० (१११।१२-१४) एवं जै० (६।११५१ एवं ६।८।२०-२२); कात्या० (१११११८-२०) एवं जै० (१२।२।१-४); कात्या० (१।२।१८-२०) एवं जै० (६।३॥२-७, नित्य कर्म के विषय में, जो पूर्ण फलदायक होते हैं, भले ही कुछ अंग न सम्पादित हुए हों); कात्या० (१।३।१-३) एवं जै० (१।१३५-४०); कात्या० (१३।२८-३०) एवं जै० (६।६।३) । कहीं-कहीं कात्यायन ने पूर्वमीमांसासूत्र का विरोध किया है, किन्तु बहुधा शब्द एक-से आये हैं।
कात्यापन के पाणिनीय वार्तिकों एवं महाभाष्य से प्रकट होता है कि मीमांसा की उक्तियाँ एवं सिद्धान्त उनसे बहुत पहले विकसित हो चुके थे। उदाहरणार्थ, वार्तिकों में मीमांसा के ये शब्द आये हैं--प्रसज्यप्रतिषेध' (वार्तिक ७, पाणिनि १।१।४४ ; वार्तिक ५, पा० ११२१; वा० २, पा० ७।३।८५), 'पर्युदास' (वा० ३, पा० १११।२७), 'शास्त्रातिदेश' (पा० ७।१।६६ पर वा०), 'नियम' एवं 'विधि' में अन्तर (वा १ एवं २, पा० ३१३।१६३), 'प्रकरण' (वा० ४, पा० ६।२।१४३)। पतञ्जलि का महाभाष्य पू० मी० सू० से परिपूर्ण है। 'मीमांसक' शब्द आया है (भाष्य, पा० २।२।२६)। महाभाष्य में 'पाँच पाँच नख वाले' पशु खाये जा सकते हैं (पञ्च पञ्चनखा भक्ष्याः...) वाला प्रख्यात उदाहरण आया है और कहा गया है कि उन पाँचों के अतिरिक्त अन्यों को नहीं खाना चाहिए। किन्तु पतञ्जलि ने 'परिसंख्या' शब्द का प्रयोग नहीं किया है, जैसा कि मीमांसा ग्रन्थों में आया है। जैमिनि में 'परिसंख्या' आया है (७।३।२२)। महाभाष्य ने (पा० ४।१।१४, वार्तिक ५; एवं ४।१।६३, वार्तिक ६) एक मूल्यवान् सूचना दी है, यथा--यदि कोई नारी काशकृत्स्नि द्वारा व्याख्यायित मीमांसा पढ़ती है तो वह ब्राह्मण नारी 'काशकृत्स्ना' कही जायेगी। इससे यह प्रमाणित हो जाता है कि पतंजलि के काल में काशकृत्स्नि
६. भक्ष्यनियमेनाभक्ष्यप्रतिषेधो गम्यते । पञ्च पञ्चनखा भक्ष्या इत्युक्ते गम्यत एतदतोऽन्येऽभक्ष्या इति । महाभाष्य (कोलहान द्वारा सम्पादित, जिल्द १, पृ० ५) । मिलाइए शबर, जै० (१०।७।२८) : 'किन्तु परिसंख्यया प्रतिषेधः स्यात् । यथा पञ्च पञ्चनखाश्चाशल्यक इति शशादीनां पञ्चानां कीर्तनादन्येषां भक्षणं प्रतिषिध्यत इत्ययमों वाक्येन गम्यते ।' पाँच पशु ये हैं-शल्यकः श्वाविधो गोधा शश: कूर्मश्च पञ्चमः ॥ रामायण (११७३३६); मनु (५॥१८, यहाँ इन पाँच पशुओं के साथ खड्ग भी जोड़ दिया गया है)। देखिए याज्ञ० (१११७७, पांच के लिए) गौतमधर्मसूत्र (१७।२७) : 'पञ्चनखाश्च । शल्यकशशश्वाविद्गोधाखड्गकच्छपाः' (अभक्ष्याः )।
७. काशकृत्स्निना प्रोक्ता मीमांसा काशकृत्स्नी, काशकृत्स्नीमधीते काशकृत्स्ना ब्राह्मणी । महाभाष्य (पा० ४।१।१४)। काशकृत्स्नि की मीमांसा में यदि पूर्वमीमांसा का विवेचन था तो यह आश्चर्य है कि पूर्वमीमांसासूत्र के विद्यमान ग्रन्थ में इसकी ओर कोई संकेत नहीं है, जब कि उसमें (पूर्वमीमांसासूत्र में) जैमिनि के अतिरिक्त ६ पूर्ववर्ती मीमांसकों के नाम आये हैं, यथा--आत्रेय, आलेखन (६॥५॥१७), आश्मरथ्य (६३५३१६), ऐतिशायन, कामुकायन, कार्णाजिनि, बादरायण, बादरि एवं लावुकायन । डा० उमेश मिश्र ने म०म० गंगानाथ झा के ग्रन्थ 'पूर्वमीमांसा इन इट्स सोर्सेज' के अन्त में दी गयी ग्रन्थावली में भूल से आदमरथ्य का नाम छोड़ दिया है। पतञ्जलि ने फाशकृत्स्नि को मीमांसा का उल्लेख किया है, अतः ई० पू० २०० के पूर्व उसे रखना ही होगा। यदि काशकृत्स्नि ने पूर्वमीमांसा पर लिखा, जैसा कि अत्यन्त सम्भव है, तो ऐसा सोचना सर्वथा ठीक है कि यदि उपस्थित पूर्वमीमांसा का प्रणयन ई० पू० २०० के उपरान्त एवं लगभग २०० ई० में (जैसा कि जैकोबी एवं कीथ दोनों महोदयों ने लिखा है) हुआ, तो काशकृत्स्नि का नाम पू० मी. सू० में अवश्य आ जाना :
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